सौम्यता, सरलता और सहजता चेहरे पर लिए मशहूर आलोचक, लेखक और एक बेजोड़ अध्यापक आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी का शब्दों से खेलना और यादगार कृति रचना उनके जीवन का लक्ष्य है। सोच का ताना-बाना उनके मन में निरंतर चलता रहता है, लेकिन जब कागज़ पर उतरता है, तो मिसाल बन जाता है। साहित्य और संस्कृति का बेजोड़ वातावरण इनकी रचनाओं का महत्वूपर्ण हिस्सा है। यह ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने एक ओर अपने गुरु पर जीवनी लिखी; वहीं दूसरी ओर अपने शिष्यों पर आधारित स्मृति-चित्र भी लिखे। जब वे बोलते हैं तो साहित्य, राजनीति, संगीत, इतिहास, लोक सबको साथ-साथ लेकर चलते हैं। अगर यह कहें कि - "वे मानव मन के सूक्ष्मदर्शी हैं" तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इनके जीवन में प्रगतिशील धारा का महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है, लेकिन इस प्रभाव को उन्होंने किताबों से पढ़ा हुआ नहीं, बल्कि गरीबी से स्वतः ही बहने वाली अनुभव धारा से उपजा हुआ माना है। वे मार्क्सवादी तो हैं, पर नरमदल मार्क्सवादी। उम्र के ९१वें पड़ाव में भी चेहरे पर सादगी और ऊर्जा लिए डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी के जीवन के कुछ पहलुओं को जानने की कोशिश करते हैं।
आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी का जन्म ग्राम बिस्कोहर, ज़िला-बस्ती (अब सिद्धार्थनगर) उत्तर प्रदेश में एक गरीब ब्राह्मण किसान परिवार में हुआ। घरवालों की किसानी के प्रति नीरसता से घर के आर्थिक हालात ठीक नहीं रहते थे, तो बालक विश्वनाथ का अधिकांश समय उपवास में बीतता। इनका गाँव सुदूर हिमालय की तलहटी पर बसा विलक्षण बसावट वाला था, जहाँ पचास प्रतिशत क्षमता के साथ, मुस्लिम धर्म के लोग निवास करते थे। गाँव के एक संगठन में कार्य करने के अनुभव से लेखक त्रिपाठी जी कहते हैं कि उस संगठन में मुस्लिमों का प्रवेश वर्जित था; परंतु उनके रहते हुए अस्सी प्रतिशत मुस्लिम उस संगठन में प्रवेशित थे। मुस्लिमों का कहना था कि यदि विश्वनाथ खिलाएँ तो हम क्यों न आएँ? बिस्कोहर से ५० मील तक की दूरी पर आवागमन का कोई साधन नहीं था, परंतु मन की उधेड़-बुन और शायद साहित्य के सूरज का निकलना तय था। इसीलिए गाँव के ही कुछ बच्चों के साथ गाँव के शिवाला में पाठशाला देखने की ललक उत्पन्न हुई। कुछ रोज़ बाद माता-पिता को पता चला कि विश्वनाथ स्कूल जाता है, तो पूछा गया कि क्या पढ़ते हो? इस बात पर दुनिया के झमेलों से दूर अबोध विश्वनाथ कहते हैं - "य र ल व क्ष त्र ज्ञ"। गाँव से ही श्री त्रिपाठी गुरु के प्रिय बनते गए, तत्पश्चात बलरामपुर से पढ़ाई की, फिर कानपुर चले गए। इस दौर में ६० से ७० रुपए स्कॉलरशिप पर आगे की पढ़ाई जारी रखी। बी० ए० की परीक्षा में द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण हुए, क्योंकि उन दिनों इन्हें सिनेमा देखने का बहुत शौक था; तत्पश्चात कानपुर से विदा लेकर बनारस आ पहुँचे। वहाँ इनको अपने पंसदीदा अध्यापक डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का सान्निध्य प्राप्त हुआ। यहीं से इनकी रचना-धर्मिता का वास्तविक आलोक जाग्रत हुआ। १५ नवंबर १९५८ को देवी सिंह बिष्ट महाविद्यालय नैनीताल में अध्यापक नियुक्त हुए। ८ अक्टूबर १९५९ को किरोड़ीमल कॉलेज दिल्ली में नियुक्त हुए। बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर में अध्यापन कार्य किया। १५ फरवरी १९९६ को ६५ वर्ष पूर्ण होने के बाद सेवानिवृत्त हुए।
साहित्य के प्रति रुचि
मात्र छः वर्ष की उम्र में ही (गाँव में स्वाधीनता की लहर थी, जिससे गाँवों में पुस्तकालय खुले) पुस्तकालय में तरह-तरह की किताबें पढ़ने का अवसर मिला। डॉ० त्रिपाठी कहते हैं - "ब्राह्मण मोहल्ले में निवास करने के कारण आठ वर्ष की अवस्था में ही मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत-भारती' पढ़ने को दी गई, उसे मैं पूरा पढ़ गया। गाँव में उर्दू का भी वातावरण था, मैंने उर्दू भी सीखी।" साथ ही इनमें कविता का संस्कार गाँव की ही माटी से उत्पन्न होने लगा था, क्योंकि गाँव के ही कुछ पंडित कविता लिखते थे। विद्यार्थी जीवन से ही वाद-विवाद, कविता प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगे थे, लेकिन इन्होंने साहित्य में दीक्षित होकर कभी भी साहित्य की सर्जना नहीं की।
बनारस का वातावरण साहित्यिक आभा से मंडित था, वहाँ इन्हें विलक्षण प्रतिभा के धनी पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी का सान्निध्य और नामवर सिंह तथा केदारनाथ जैसे साहित्य के पुजारियों का साथ मिला। साहित्यिक वातावरण में इनके सपनों को भी हवा मिलनी शुरू हो गई, तमाम तरह के प्रगति सम्मेलनों, कवि सम्मेलनों में जाने का अवसर मिलता रहा। इन्हें कविता लिखने की इच्छा जाग्रत हुई, लेकिन गरीबी और तंगहाली की स्थिति में मन में तरह-तरह के सोच-विचार ने आखिर एक दिन सन १९५५ में कविता लिखने के लिए प्रेरित किया और इन्होंने अपनी कलम की ताकत को शब्दों में ढालने का प्रयास करते हुए लिखा -
कवि त्रिपाठी के अनुसार - "मैं नहीं समझता कि कविता किसे कहते हैं?" लेकिन मित्र नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह द्वारा सराहे जाने पर तथा इनकी पहल से पहली कविता प्रकाशित हुई, तत्पश्चात इस कविता का अँग्रेज़ी और जर्मनी में भी अनुवाद हुआ। इनकी पहली किताब 'हिंदी आलोचना' आज भी अपनी मौलिकता और दृढ़ता से ईमानदार अभिव्यक्ति तो है ही; साथ ही सटीक और व्यापक विश्लेषण से युक्त अपने क्षेत्र में अद्वितीय अभिव्यक्ति भी है। फिर तो इन्होंने अपने विचारों से जो भी लिखा वह अपने आप में अद्वितीय बनता गया। वे किरोड़ीमल कॉलेज में अध्यापन कार्य कर रहे थे, वहाँ इन्होंने डॉ० नामवर सिंह के कहने पर कुछ समीक्षाएँ लिखी और आलोचक बन गए। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के जीवन पर आधारित 'व्योमकेश दरवेश' में गुरु के साथ जिए समय को शब्दों में ढाला, तो 'नंगातलाई का गाँव' में अपने गाँव और बचपन की यादों को ताज़ा किया। आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी 'प्रसार भारती' के एक साक्षात्कार में कहते हैं कि - "मेरे जीवन पर सबसे ज्यादा प्रभाव जिस शख़्सियत का पड़ा, वह था मेरा गाँव, अपना गाँव, अपनी माटी, संस्कृति, रीति-रिवाज़। जिस तरह से मैं तुलसीदास के 'रामचरित मानस' और अनीस के मर्सिये को हिंदी और उर्दू; हिंदू और मुसलमान को अलग-अलग नहीं कर सकता, उसी तरह गरीबी के सवाल को मानव-समाज से भी अलग नहीं कर पाता हूँ। यह गुण मेरे अंदर स्वतः ही उत्पन्न हुआ है।"
"मेरा बाप - विजित एवरेस्ट
मेरी माँ - अभाव, शेषनाग से विषतप्त क्षीर-सागर
मेरी बहन - मैले चिथड़ों से बनी पर कोई गुड़िया
और मैं -
उबलता हुआ केतली का पानी
जिसे बन-बन कर भाप-भाप बनते रहना है।"
इन्होंने नए एवं पुराने दोनों ही प्रकार के साहित्य पर अपनी समीक्षाएँ लिखी, 'लोकवादी तुलसीदास' जैसी अद्वितीय रचना लिखकर तुलसीदास को नए दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की। इसलिए इस रचना पर कहते हैं - "तुलसीदास की लोकप्रियता का कारण यह है कि उन्होंने अपनी कविता में अपने देखे हुए जीवन का बहुत गहरा और व्यापक चित्रण किया है, उन्होंने वाल्मीकि और भवभूति के राम को चित्रित नहीं किया, उनके दर्शन और चिंतन के राम ब्रह्मा हैं, लेकिन इनकी कविता के राम 'लोक-नायक' हैं।" इसी तरह से मीरा के काव्य का पहली बार आधुनिक दृष्टि के मूल्यांकन करके उसकी उपयोगिता और महत्व की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। इसमें मीरा का प्रेम, रहस्य, विद्रोह और भक्ति का अनूठा संगम दृश्यमान है।
समकालीनता के प्रेरक पर्यवेक्षक
आचार्य त्रिपाठी का अधिकांश लेखन अपने समाज और समय से जुड़ा हुआ है, तब चाहे हरिशंकर परसाई के व्यंग्य निबंधों की विवेचना से हो या केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं के मर्म का वर्णन; हर बिंदु को पहचानते हुए उन्होंने समाज की सही गति से उपयुक्त दिशा में सही पहचान की है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अंतर्वासी तथा प्रिय मित्र रहते हुए भी उनका कुछ मुद्दों पर प्रखर विरोध करने वाले रामविलास शर्मा से भी उनके असीम युगांतकारी सृजन कार्यों के कारण हार्दिक रूप से जुड़े रहना स्वाभाविक था। इसी तरह से इन्होंने नामवर सिंह के प्रति भी अदम्य जिज्ञासाओं के कारण लगाव बनाए रखा।
जीवनी का एक नया मानदंड
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर लिखित पुस्तक 'व्योमकेश दरवेश' वस्तुतः जीवनी साहित्य की चौथी महत्वपूर्ण पुस्तक है। अब तक तीन सर्वश्रेष्ठ जीवनियों में 'कलम का सिपाही', 'निराला की साहित्य साधना' (जीवनी खंड) तथा 'आवारा मसीहा' प्रमुख थी।
आचार्य त्रिपाठी की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह रही है कि विवादों से यथासंभव दूर रहना पसंद करते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी, डॉ० रामविलास शर्मा, डॉ० नामवर सिंह, डॉ० नगेंद्र पर इन्होंने विस्तार से लिखा। इन सभी आलोचकों के आलोचना कर्म में अनेक विषयों को लेकर व्यापक मतभेद हैं; किंतु आलोचक ने इन सबकी बहुत ही व्यवस्थित और प्रामाणिक समीक्षा करते हुए अद्भुत संतुलन का परिचय दिया है। इनका समस्त आलोचना कर्म समय की जरूरत और समाज हित से अनुस्यूत है।
अंततः आलोचक त्रिपाठी अपने जीवन के निष्कर्ष स्वरूप कुछ पंक्तियाँ अपने बारे में स्वयं कहते हैं - "कई बार साधनहीनता या आपकी गलती ही आपका जीवन बना देती है, यही मेरे साथ भी हुआ।"
जीवन के इस पड़ाव में भी कवि, आलोचक और गद्यकार डॉ० त्रिपाठी समाज, राजनीति और समय के साथ चलना पसंद करते हैं; इनकी लेखनी समय और समाज की कठपुतली है। जो समाज को समय दिखाएगा, वही इनकी लेखनी से परिचय पाएगा।
संदर्भ
- ६ जुलाई २०१५ - आजतक।
- राज्यसभा टीवी में शख़्सियत कार्यक्रम अंतर्गत समीना द्वारा साक्षात्कार- विश्वनाथ त्रिपाठी।
- विकिपीडिया (Wikipedia)
- अजय तिवारी - प्रसार भारती पर साक्षात्कार - भाग-१
- प्रो. अमरनाथ- देश हरियाणा, विश्वनाथ त्रिपाठी।
डॉ० रेखा सिंह
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग
रा० महाविद्यालय पावकी देवी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड, भारत।
बी० एड०, पीएचडी, नेट, यूसेट।
शोधपत्र - २० राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय।
स्मृति सृजनकार एवं वरिष्ठ आलोचक आदरणीय विश्वनाथ त्रिपाठी जी समकालीन आलोचना जगत में एक महत्वपूर्ण विरल हस्ताक्षर है। उनकी आलोचनात्मक रचनाओं को समकालीन समाज और हिंदी साहित्य पर विशेष रेखांकित किया गया है। उनके लेखन को पढ़कर अजीब सी ऊष्मा, आत्मीयता तथा आपने आप से बांध लेनेवाली निश्छलता का ज्ञान होता है। आदरणीया रेखा जी के आलेख से आचार्य जी के हिंदी साहित्य में योगदान किए जाने वाले कार्य को मानवीय संवेदनाओं से महिमान्वित किया है। उनके आलोचक दृष्टि को ध्यान में रखते हुए आलेख में विशिष्ट बिंदुओं को रचनात्मक ढंग से प्रस्थापित किया है। आधुनिक दृष्टि से मूल्यांकन कर लिखा इस लेख का पठन कराने हेतु आपका आभार और अग्रिम आलेख के लिए असंख्य शुभकामनाएं।
ReplyDeleteविश्वनाथ त्रिपाठी आलोचना जगत् में एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। डॉ॰ त्रिपाठी ने मुख्यतः मध्यकालीन साहित्य एवं समकालीन साहित्य की आलोचना के सम्बंध में विस्तृत कार्य किया। लेख अच्छा बना है। इस रोचक लेख के लिए डॉ रेखा सिंह को बहुत बहुत बधाई।
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ReplyDeleteरेखा जी ने आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी जी के सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर उन पर सीमित शब्दों में सहज, रोचक, भावपूर्ण, गंभीर आलेख लिखा है। यह त्रिपाठी जी के लिए जन्मदिन पर बहुत बढ़िया तोहफ़ा भी है। रेखा जी को इसके लिए बधाई और धन्यवाद। हम सब आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी जी को जन्मदिन की बधाई दे रहे हैं तथा उनकी रचनात्मक सक्रियता हमेशा बनी रहने की कामना करते हैं।
रेखा जी, विश्वनाथ त्रिपाठी की आलोचना को सलाम; अपने समय के सभी नामचीन आलोचकों पर विस्तार से लिखना, उनके आलोचना कर्म पर इतना संतुलित लिखना कि पाठकों तक उन साहित्यकारों का मर्म पहुँचे और उनकी साहित्यकारों से आत्मीयता भी बनी रहे, निश्चित ही यह उनकी वस्तुनिष्ठ सोच का अनुपम उदहारण है। आपके आलेख ने जैसे कि उनकी तस्वीर खींच कर सामने रख दी हो, इससे उनका सशक्त व्यक्तित्व भी झलकता है और साहित्य सृजन भी। आपको इस लेख के लिए बहुत-बहुत बधाई और आभार।
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