Monday, February 21, 2022

विषपान कर अमृत बरसाने वाले महाप्राण निराला

वर दे वीणावादिनी वर दे।
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे।
काट अंध डर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
नव गति, नव लय, ताल छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव,
नव नभ के नव विहग-वृन्द को
नव पर नव स्वर दे,
वर दे वीणा वादिनी वर दे।

माँ सरस्वती की आराधना में कविवर निराला की यह वंदना अपनी रचना काल से लेकर आजतक प्रत्येक वसंतोत्सव को पूर्णता देती है; किसी भी विद्या-अर्चना का अवसर इन बोलों के बिना अधूरा-सा लगता है। यह वंदना इतनी सुगठित एवं संवेदी है कि इसके पाठ-मात्र से संपूर्ण वातावरण निर्मल हो जाता है। सच है, साहित्य रचना एक साधना है और रचनाकार इसके साधक - अपनी प्रखर लेखनी से ये साहित्यकार समाज को एक नई दिशा दे जाते हैं। इनका उद्देश्य मानवीय वेदनाओं-चेतनाओं को जगाना एवं समाज में समरसता-सहिष्णुता लाना रहता है। हिंदी कविता में छायावादी युग के चार स्तंभ - पंत, प्रसाद, निराला एवं वर्मा, में निराला को महाप्राण की संज्ञा मिली, क्योंकि उस दौर में उन्होंने अपने समय के अल्पप्राण प्रतिमानों को चुनौती दी थी और कई तरह की आलोचनाओं और प्रत्यालोचनाओं को झेलते हुए पहली बार मनुष्य की तरह ही कविता की मुक्ति की अवधारणा प्रस्तुत की थी ।

कवि परिचय

सूर्यकांत त्रिपाठी का जन्म पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर में माघ शुक्ल ११, संवत १९५५ तदनुसार २१ फरवरी, १८९९ में हुआ था। हालांकि, उनकी जन्म तारीख  में कुछ भ्रांतियाँ हैं, जैसे १९७६ में भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट में जन्म तारीख १८९६ बताया गया है, परंतु रामविलास शर्मा की ''निराला की साहित्य-साधना” भाग -१  के अनुसार इसे अंतिम रुप से २१ फरवरी १८९९ ही माना गया। महिषादल रिसायत में कार्यरत श्री रामसहाय तिवारी के घर जन्में सुर्य कुमार ने स्वयं को सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के रुप में निर्मित किया। वे मूल रुप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के गढ़ाकोला नामक गाँव के निवासी थे।

निराला की शिक्षा हाईस्कूल तक हुई। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। १९१८ में फैले स्पेनिश फ्लू इन्फ्लुएंजा के प्रकोप में निराला ने अपनी पत्नी मनोहरा देवी और बेटी सरोज समेत परिवार के आधे लोगों को खो दिया। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक संघर्ष में बीता। निराला के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वे सदैव अपने सिद्धातों पर टिके रहे, संघर्ष स्वीकारा, किंतु उसूलों से समझौता नहीं। अस्वस्थता के कारण कवि का अंतिम समय प्रयागराज के दारागंज मोहल्ले के एक छोटे से कमरे में बीता, और १५ अक्टूबर, १९६१ को आप संसार छोड़ परलोक सिधार गए। किंतु कविता में बसा उनका व्यक्तित्व शाश्वत हो गया।

निराला का कवि व्यक्तित्व ऐसा है, जिनकी कविताओं से मान्यताएँ बन सकती हैं, मान्यताओं से कविता नहीं। भवाना और वृत्ति का समन्वित उपस्थिति तथा रचना प्रक्रिया में उनकी एकतानता ही वह आधार है, जिससे निराला की कविता दीर्घजीवी भी होती है और कालजयी भी।

१९२० में सूर्यकुमार ने ''जन्मभूमि'' के वंदना गीत से अपनी साहित्य साधना का श्रीगणेश किया था।


बन्टू मैं अकल-कमल
चिर सेवित चरण भुगल
शोभामय शांति निलय पाप, ताप हारी
मुक्तबंध, घनानंद मुद मंगलकारी

इस गीत को लिखने के बाद काफी सोच विचारकर उन्होंने अपना नाम सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' रखा। इसके बाद इनके कई लेख, निबंध, कविता 'सरस्वती' में प्रकाशित हुईं । इनकी प्रथम कविता संग्रह 'अनामिका' थी, जो १९२३ में प्रकाशित हुई।

निराला के काव्य में चित्रोपमता एवं विचारों का अखंड स्रोत प्रवाहित होता है -


वह आता--
दो टूक कलेजे के करता, पछताता
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को - भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता -
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

निराला विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस से अत्यंत प्रभावित थे। वे न तो कोरे तर्कवादी थे, न भक्तिवादी और न ही कर्मवादी। उनका दर्शन समन्वयवादी था। वे इन तीनों को मिलाकर ही पूर्णता की कल्पना करते थे। निराला ने उपनिषदों का भी गहन अध्ययन किया था। वे असीम सत्ता के प्रति अपना जिज्ञासा भाव प्रकट करते हुए बारंबार यह प्रश्न करते हैं कि इस जगत का नियामक कौन है। कहीं-कहीं वे सूफी कवियों के चिंतन से प्रभावित दिखाई देते हैं, तो कभी वे परमसत्ता को माँ कहकर संबोधित करते हैं।

भक्ति भावना

निराला सगुणोपासक भक्त थे। अराधना, बेला और अर्चना के गीतों में निराला की भक्ति भावना को वाणी मिली है। उनकी भक्ति में विनम्रता, दीनता, आर्त, पुकार, निर्बलता और भवसागर से उबार लेने की प्रार्थना अभिव्यक्त होती दिखाई पड़ती है। वे 'स्व' की परिधि से निकलकर कहते हैं  -


दलित जन पर करो करुणा
दीनता पर उतर आए
प्रभू तुम्हारी शक्ति अरुणा

सांस्कृतिक चेतना

राष्ट्रीयता की अलख जगाने वाले निराला के काव्य में सांस्कृतिक चेतना का अजस्र प्रवाह दिखाई देता है। भारतीय संस्कृति के पोषक, सांस्कृतिक उत्थान के समर्थक और देश में एक मानवीय और समताविधायनी संस्कृति के पक्षधर निराला की बहुत सी कविताओं में सांस्कृतिक चेतना मुखरित हुई है। 'तुलसीदास' काव्य के प्रथम  छंद में भारत के अतीत, वर्तमान और मध्य तीनों का संदर्भ देखने को मिलता है।


भारत के नभ के प्रभापूर्य
शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल;
उर के आसन पर शिरस्त्राण
शासन करते हैं मुसलमान;
है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल

कवि का स्वाभिमान

वैसे तो निराला की कविताओं में उनका स्वाभिमान और आत्म सम्मान का बोध स्पष्ट दृष्टिगोचर है, किंतु उनके  स्वाभिमान से जुड़े कुछ रोचक प्रसंग साझा करने का साहस कर रहा हूँ -

पिता रामसहाय तिवारी की मृत्यु के उपरांत निराला ने महिषादल के राजा सतीप्रसाद गर्ग के यहाँ नौकरी कर ली। नौकरी के दौरान एक दिन, महिषादल में पुराने ढंग के चिमटा-धूनी वाले एक साधु का आगमन हुआ। राजमहल के सुपरिटेंडेंट साधु को राजकोष से कुछ रुपए-ज़ेवरात देना चाहते थे, परंतु सूर्यकांत ने राजा को राजकोष का धन इस तरह खर्च न करने की सलाह दी। फिर एक रात, राजमहल से घर लौटते समय सूर्यकांत ने हाथीखाने के पास उसी सुपरिटेंडेंट को शराब के नशे में पाया। अगले दिन उन्होंने राजा से इसकी चर्चा की। पूछताछ पर सुपरीटेंडेंट ने साफ़ इन्कार कर दिया। सूर्यकांत के पास अपनी बात साबित करने का कोई प्रमाण नहीं था। उस पर सुपरिटेंडेंट ने झूठी कसम भी खा ली और कहा कि उसने शराब को हाथ तक नहीं लगाया था। राजा ने उसी मंदिर में सूर्यकांत को भी कसम खाने को कहा। उस समय सूर्यकांत ने कसम तो खा ली, परंतु बाद में यह बात उन्हें बेहद अपमानजनक लगी। उन्हें लगा कि राजा को उनकी वाणी पर भरोसा नहीं हुआ, इसीलिए उन्हें भी कसम खाने को कहा गया। इस बात से आहत होकर उन्होंने राजा को एक ख़त लिखा - ''मेरे धर्मस्थल पर हस्तक्षेप करने का आपको कोई अधिकार न था। फिर मैंने सुपरिटेंडेंट साहब की नौकरी लेने के लिए तो नहीं कहा था।" इसके साथ ही उन्होंने नौकरी से इस्तीफ़ा दाखिल कर दिया।

दूसरा महत्वपूर्ण दृष्टांत महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के साथ हुए पत्राचार में झलकता है। उन्होंने द्विवेदी जी को अपनी रचना ''बंग भाषा का लेख'' शीर्षक छपने को भेजा जिसमें लिखा था, "आशा है, बंग प्रवासी एक अपरिचित संतान के परिश्रम को आप सफल करेंगे। इस लेख को ''सरस्वती'' में स्थान मिलेगा। इति - आपका अपरिचित एकांत सेवक-सूर्यकांत त्रिपाठी।"

द्विवेदी जी के यहाँ आए दिन दर्जनों होनहार लेखकों के पत्र आते रहते थे। सभी उन्हें गुरु मानते थे और लगभग सभी का उद्देश्य ''सरस्वती'' में लेख प्रकाशित करवाना होता था। उन्हें लगा कि यह सूर्यकांत नाम का व्यक्ति जो उन्हें असंख्य दंडवत प्रणाम लिखता है, वह अवश्य उनके सहारे हिंदी में आगे आने के उद्देश्य से उनकी खुशामद कर रहा है। सूर्यकांत के पत्र के उत्तर में उन्होंने पूछा कि आप कहाँ के रहने वाले हैं, क्या उम्र है, कुटु्ंब में कौन-कौन हैं आदि। सूर्यकांत ने उनके श्री चरणों में असंख्य भूमिष्ठ प्रणाम निवेदित करते हुए सूचित किया, ''आपकी इस लिखावट से मालूम हो रहा है कि मेरे पूर्व प्रेषित पत्र की व्याख्या विज्ञ-दृष्टि से नहीं की गई। आप उस पत्र को फिर से पढ़िए। देखिए तो उसमें स्वार्थ का गुप्त वर्णन है या बंधुता का विशद विवेचन? उससे संबंध जोड़ने की आशा व्यक्त होती है या जुड़े हुए संबंध का प्रमाण? मैं आपको हृदय से पूजता हूँ। यही आपसे मेरा संबंध है। इससे अधिक मधुरता और किस संबंध में है?"

इस तरह सूर्यकांत पहले ऐसे हिंदी लेखक थे, जो महावीर प्रसाद द्विवेदी सरीखे साहित्यकार को भी अपनी बात बेबाकी से कहने का सामर्थ्य रखते थे।

एक अन्य घटना में, इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा एक हिंदी साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें साहित्य-जगत के मूर्धन्य नाम जैसे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, शिवपूजन सहाय समेत अनेक हस्ताक्षर उपस्थित थे। वहाँ निराला भी मौजूद थे। गाँधीजी इस सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने सभा को संबोधित करते हुए कहा था, ''मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि हिंदी साहित्य में अभी तक कोई रविंद्रनाथ टैगोर नहीं हुए।" उनकी इस बात ने जैसे निराला के दिल में छेद कर दिया था, और वे स्वयं को रोक न सके; अपनी सीट से उठकर आयोजकों से इजाज़त मांगी और माईक पकड़ते हुए गाँधीजी से प्रश्न किया,

"क्या आप हिंदी साहित्य से परिचय रखते हैं, क्या आपने निराला को पढ़ा है? अगर नहीं तो आपको यह कहने का हक नहीं है। कहीं आपका संकेत नोबल पुरस्कार से तो नहीं, जो उन्हें अँग्रेज़ी अनुवाद के लिए मिली थी, न कि हिंदी लेखन के लिए।"

निराला की बात सुनकर गाँधीजी को अपनी बात वापस लेनी पड़ी।

कवि निराला की निराली भाषा-शैली

कविवर निराला की भाषा-शैली पर ध्यान दें, तो यह विश्वास नहीं होता कि वे केवल दसवीं पास थे। उच्च शिक्षा प्राप्त साहित्यकार भी उनका लोहा मानते हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी को लिखे एक पत्र में अपना परिचय उन्होंने कुछ इस प्रकार दिया था, ''न साक्षर हूँ, न निरक्षर हूँ, बस यूँ समझिए कि अक्षर हूँ।"

डॉ० रामविलास शर्मा को एक नवजात शिशु के आगमन का समाचार कुछ इस तरह देते हैं, "घर में नई पीढ़ी ने कदम रखा है। नई बहु की कोख उपजाऊ है, इसका सबूत पैदा हुआ है।"

वहीं एक और पत्र में वे लिखते हैं, "आजकल कुछ खास नहीं - झरोखों से आकाश ताका करता हूँ। होश में तो हूँ, पर होश ही में नहीं आ पाता। जब संभलता हूँ, प्रकृति का कोई न कोई उत्पात हो ही जाता है। बिगड़ी हुई प्रकृति की लिखावट भला कैसी होगी?"

अपने प्रिय मित्र बलभद्र दीक्षित के बारे में लिखते हैं, "दीक्षित के लिए बहुत सोचता हूँ, मगर मेरी वह नस कट गई है जिसमें स्नेह सार्थक है।"

इस प्रकार उनके संपूर्ण लेखन एवं संवाद में भाषा-शैली उच्च साहित्यिक बुनावट से ओत-प्रोत है।

निराला भारतीय साहित्यिक संस्कृति के दृष्टा कवि हैं। वे रुढ़िवादिता के विरोधी तथा संस्कृति के युगानुरुप पक्षों के उद्घाटक और पोषक रहे हैं। महाप्राण निराला हिंदी साहित्याकाश में एक नक्षत्र की भांति चमकती विभूति हैं, जो सर्वथा दुर्लभ है। वे जहाँ हिंदी के छायावादी सोपान में 'तुलसीदास', 'राम की शक्तिपूजा', 'जूही की कली', 'सरोज-स्मृति', 'जागो फिर एक बार' जैसी युगांतकारी रचनाएँ देकर, महाकवि प्रसाद तथा पंत के साथ मिलकर उस युग की 'त्रयी' का निर्माण करते हैं; वहीं दूसरी ओर समाज में व्याप्त अन्याय एवं शोषण के विरुध्द 'भिक्षुक', 'वह तोड़ती पत्थर', 'कुकुरमुत्ता' जैसी क्रांतिकारी स्वर-प्रधान मार्मिक रचनाएँ रचकर हिंदी कविता के अग्रदूत बन जाते हैं। हिंदी साहित्य में अपनी बेटी पर लिखी 'सरोज-स्मृति' जैसी मार्मिक कृति अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकती।

निराला की कविता लेखन-शैली पर अशोक वाजपेयी का कहना है कि महाकवियों की विशेषता ही होती है, बड़े रेंज का कवि होना। निराला इसलिए महाकवि हैं क्योंकि एक तरफ तो उनमें क्लैसिकी परंपरा के दर्शन होते हैं, वहीं दूसरी ओर एकदम अपने आसपास के परिवेश के जनधर्मिता की कविता। निराला इसलिए दूसरे छायावादी कवियों से अलग हैं क्योंकि उनका विद्रोह केवल भावनात्मक उफ़ान नहीं है, बल्कि वह तो जीवन और सामाजिक संबंधों की बेहतर समझ और उससे बनी मानसिक चेतना से उत्पन्न है। छायावाद के दौर और दायरे में रहकर भी कवि छायावाद का अतिक्रमण नहीं करता है, बल्कि कविता की नई ज़मीन तलाशता है; बिना घोषणा किए नई राहों का अन्वेषण करता है, आगे आनेवाले को राह दिखाता है।  

अपराजेय

हिंदी में निराला का व्यक्तित्व अपराजेय कवि का है। डॉ० रामविलास शर्मा जैसे दिग्गज आलोचक ने निराला पर लेख लिखकर ही अपने आलोचक जीवन की शुरुआत की। ''निराला की साहित्य-साधना'' के तीन खंड लिखकर डॉ० शर्मा ने प्रमाणित किया कि ऐसी प्रतिभा युगों में एक होती है। निराला के जीवन और साहित्य का पाट बहुत चौड़ा व प्रशस्त है। उसमें अनेक मोड़, करवटें, शैलियाँ और विविधताएँ हैं । निराला को पढ़ना इस जीवन के विराट अनुभवों से गुज़रना है।

 

महाप्राण निराला : जीवन परिचय

पूरा नाम

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

जन्म

२१ फरवरी, १८९९

जन्मभूमि

गढ़ाकोला, उत्तर प्रदेश

जन्मस्थल

महिषादल मेदनीपुर (प० बंगाल)

पिता 

पंडित रामसहाय

मृत्यु

१५ अक्टूबर, १९६१

पत्नी

मनोहरा देवी

शिक्षा

हाईस्कूल

 

 

साहित्यिक रचनाएँ

काव्य-संग्रह

अनामिका, परिजल, गीतिका, तुलसीदास, कुकुमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अर्चना, अराधना, गीत कुंज, सांध्यकाकली, अपरा

उपन्यास

अलका (१९३३), प्रभावती (१९३६), निरुपमा (१९३६), कुल्लीभार (१९३९), बिल्लेसुर बकरिहा (१९४२), चोटी की पकड़ (१९४६), काले कारनामे (१९५०), चमेली (अपूर्ण),

कहानी-संग्रह

लिली, सखी, सकुल की बीवी, चतुरी चमार देवी

निबंध आलोचना

रविन्द्र कविता कानन, प्रबंध प्रतिमा प्रबंध पदम, चाबुक, चयन

प्रतिष्ठित सम्मान

मरणोपरांत, ''पद्मभूषण'' पुरस्कार से सम्मानित

 संदर्भ

  • ''निराला की साहित्य-साधना” भाग - १  (पृष्ठ सं० ४४३  व अन्य)
  • विकिपीडिया
  • कविताकोश

लेखक परिचय


प्रताप कुमार दास

मुख्य तकनीकी अधिकारी (राजभाषा)

केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान, मुंबई  (समतुल्य विश्वविद्यालय) में विगत २६ वर्षों से राजभाषाकर्मी के रुप में कार्यरत। “जलचरी” पत्रिका  के संपादक, लेखन कार्य में अभिरुचि

मोबाइल : +91 9869373465; ईमेल : <pkdas@cife.edu.in>

10 comments:

  1. बहुत ही ज्ञानवर्धक अति उत्तम को बहुत-बहुत बधाई

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  2. प्रताप जी, आपने बहुत सुंदर आलेख में निराला जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला है। बधाई। जिस महाकवि के लिए हिंदी प्रेमियों द्वारा सब कुछ कहा जा चुका है , लिखा जा चुका है , उस पर और क्या कहना। उनके कृतित्व को , पाबन स्मृति को नमन । 🙏💐

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  3. प्रताप कुमार दास जी, आपने महाकवि निराला पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। महाकवि निराला के बारे में जितना लिखा जाए वो कम ही है। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।

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  4. अपने स्कूल के दिनों में आदरणीय 'निराला' जी को हिंदी पाठ्यपुस्तक में पढ़ा करते थे। श्री प्रताप दास जी के आलेख ने हमे उनकी *कुकुरमुत्ता और वह तोड़ती पत्त्थर* याद दिला दी। 'निराला'जी की काव्यकला चित्रण कौशल से भरी होती थी। उनकी रचनायें आंतरिक भाव हो या जगत के दृश्यरूप, सजीव चित्र से लेकर प्राकृतिक दृश्य के तत्वों को घोलकर एक जीवंत चित्र प्रस्तुत करते थे। उनकी रचनाओं में भावबोध ही नही बल्कि चिंतन भी समाहित होता था। आदरणीय प्रताप जी ने उनकी आध्यात्मवाद और रहस्यवाद जैसे अद्भुत शक्ति का भी विशेषरूप से इस लेख में गठन किया है। उनके जीवन के आलोकमय रचनात्मक महासागर से कुछ चमत्कारिक अंश अपने प्रभावशाली शब्दों से इस आलेख के द्वारा हमारे सामने रखे है। 'निराला' जी की सजगता और यथार्थवादी के विषयभाव इस आलेख को और विशिष्ट बना रहे है। प्रताप जी का असंख्य आभार इस सुंदर और ज्ञानवर्धक आलेख के लिए।

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  5. साहित्यकार का व्यक्तित्व उसके कृतित्व से अलग नहीं किया किया जा सकता।उनका आंतरिक ,मानसिक जीवन और बहुत हद तक उनका वाह्य सामाजिक जीवन उनके रचनाकारत्व में संबद्ध रहता है।निरालाजी का तो समस्त काव्य चित्रोपमता, मर्मस्पर्शिता से भरा पडा है।मैंने जो लेख प्रतुत किया है वह निराला जी के कृतित्व की झलक भर है,उनका विशद चित्र नहीं।मेरी लेखनी में इतना सामर्थ्य कहां ,परंतु जिन्होने मेरे प्रयास को सराहा ,भावों से भर-भर कर अपनी टिप्पणी दी, मेरा हौसला आफजाई किया ऐसे श्रद्धेय एवं परम आदरणीय डा.जगदीश व्योम जी , श्री हरप्रीत पुरी जी,डा.दीपक बामोला जी,श्री सरस दरबारी जी ,श्री सूर्यकांत जी श्री मनीष जी,आदरणीया डा.सुनीता यादव जी ,चित्र जी मुद्गल जी,हिना जी,शार्दुला जी सभी सुधिजनो को अपना प्रणाम निवेदित करता हूं तथा आभार व्यक्त करता हूं🙏🙏🙏🙏🙏

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  6. प्रताप जी, महाप्राण निराला के व्यक्तित्व और कृतित्व को जितनी बार भी जानो, समझो, कोई नया पुट, नया प्रेरणास्रोत अवश्य मिल जाता है। आज आपका लेख पढ़कर उनकी संवेदनाओं करुणा, उदारता और संघर्षशीलता से पुनः भेंट हुई और इस सुन्दर मुलाक़ात के लिए आपका बहुत-बहुत आभार।

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  7. कविवर निराला जी की लेखनी इतनी गहरी है कि हर कविता प्रेमी, साहित्य प्रेमी ,आम जनता उसे अपने में जीता हुआ पाता है।इसलिए हम सभी को निराला से अनुराग है ,स्नेह है,आसक्ति है।जैसे कि डा. व्योम जी ने अपनी टिप्पणी में कहा कि वे जनता के कवि है,मनीष जी ने लिखा कि ईलाहाबाद में एक नाई की दुकान में निराला जी की तस्वीर टंगी है।ये वही कवि हैं जिन्होने अपनी लेखनी से समाज में समरसता ,सहिष्णुता,मानवीय वेदनाओं ,चेतनाओं को जगाया है। वे पूरे 135 करोड देशवासियों के हृदय में बसने वाले कवि हैं ।उनकी 123 वीं जन्म जयन्ती पर समस्त भारतवासी उन्हे नमन करते हैं🙏🙏🙏

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  8. अति प्रशंसनीय बहूत बहुत बधाई।

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  9. Highly praiseworthy congratulations.Very informative

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  10. इतने विराट व्यक्तित्व को सीधे हुए शब्दों में बखूबी बयां किया आपने! बहुत बहुत बधाई एवं आभार!

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