ऐसे कम लोग होते हैं, जो ज़िंदगी के शुरूआती दौर में ही अपना लक्ष्य निर्धारित कर सकें और आजीवन उस राह से न भटकें। प्रो० गोपीचंद नारंग ने स्कूल में रहते हुए ही उर्दू के लिए कुछ करने का इरादा पक्का किया था और आज तक वे उस राह पर अविचलित चलते चले जा रहे हैं; यह नहीं कि ज़िंदगी उनके लिए सपाट रास्ता रही और लक्ष्य हमेशा आँखों के सामने।
अविभाजित भारत के बलूचिस्तान के दुक्की नाम के छोटे क़स्बे में जन्मे और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर पद से अवकाश ग्रहण करने वाले गोपीचंद नारंग ने उर्दू के साथ एक लंबी राह तय की है, जो उन्हें विदेश के कई विश्वविद्यालयों में ले गई और दिल्ली के विभिन्न संस्थानों से गुज़री।
अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं कि जब वे पहली जमात में थे, उन्हें किताबों और इम्तहानों से डर लगता था, और फिर वही किताबें उनकी दमसाज़ और रफ़ीक़ हो गईं। पढ़ाई में वे हमेशा अच्छे थे और अव्वल आते थे। वे बताते हैं कि उनके ननिहाल में सरायकी बोली जाती थी और बलूचिस्तान में जहाँ उनका परिवार रहता था, वहाँ की ज़बान पश्तो और बलूची थी, लेकिन राबिते की ज़बान उर्दू थी और वही उनकी मादरी ज़बान बन गई। तभी से उर्दू की मोज़िकियत, कशिश, जादुई हुस्न उनकी शख़्सियत में ऐसे घुले कि उनका हिस्सा बन गए। आज वे पूरे विश्व में उर्दू के सबसे बड़े समालोचक और भाषाविद माने जाते हैं; इस बात की पुष्टि सिर्फ़ और सिर्फ़ उनका काम करता है। उन्होंने उर्दू को उसका फ़रोग़ दिलाने के लिए जो मुमकिन हो सकता है, किया और कर रहे हैं।
ज़बानों के प्रति प्रेम का श्रेय वे अपने पिता को देते हैं, जो फ़ारसी और संस्कृत के विद्वान थे, और उनके घर पर हमेशा सभी भाषाओं के काव्य-ग्रंथों पर चर्चा होती रहती थी। इनका परिवार बहुत बड़ा था और घर के सारे काम माँ स्वयं करती थीं, और जैसे ही किसी पड़ोसी वग़ैरह को सहायता की ज़रूरत होती थी, तो सब छोड़ के दौड़ी चली जाती थीं। नारंग साहब ने इंसानियत का सबक़ अपनी माँ से सीखा।
सत्रह साल की उम्र में देश के बँटवारे के बाद शुरू हुए दंगों के दौरान अक्टूबर में रेडक्रॉस के एक जहाज़ से वे अपने बड़े भाई के साथ भारत आए थे। एक छोटी सी पेटी में अपने चंद लेख और लिखने का कुछ सामान ही बतौर सरमाया लाए थे। भेड़-बकरियों की तरह भरे जहाज़ से जब वे सफ़दरजंग हवाईअड्डे पर उतरे, तो रात के अँधेरे में वह पूँजी भी ग़ायब हो गई थी। पहली रात सभी शरणार्थियों ने बिरला मंदिर की ओस से भीगी घास पर बिताई थी। उनके पिता, माँ और आठ भाई-बहन बाद में अलग-अलग समय पर भारत लौटे; पिता सबसे आख़िर में, वर्ष १९५६ में। बड़े भाई की भलमनसी और दूरदर्शिता के चलते, वे परिवार के बोझ निर्वहन से बच गए और अपनी पढ़ाई जारी रख सके, नतीजतन दुनिया को ख़ुसरो, मीर, ग़ालिब, अनीस, दबीर, इक़बाल, फ़िराक़, फैज़, गुलज़ार, निदा फ़ाज़ली और जावेद अख़्तर के कलामों को समझाने वाला, उन पर सार्थक समीक्षाएँ और टीकाएँ लिखने वाला मिला। उनके बड़े भाई को उनकी उस नेक समझ के लिए सलाम।
साइंस में अपने इलाक़े में अव्वल आए छात्र के क़दम उर्दू के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते दिल्ली कॉलेज (वर्तमान ज़ाकिर हुसैन कॉलेज) की ओर बढ़ गए, जहाँ से उन्होंने उर्दू में एमए और शिक्षा मंत्रालय के वज़ीफ़े पर पीएचडी की। उनके उस्ताद थे - ख़्वाज़ा अहमद फ़ारूक़ी। गोपीचंद की पहल पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली विश्वविद्यालय में उर्दू विभाग के गठन की अनुमति दी थी। उर्दू के बारे में नारंग साहब के विचार कुछ ऐसे हैं - "उर्दू ख़ूबसूरत इसलिए है, क्योंकि इसमें कई ज़बानों का हुस्न शामिल है। यह एक रंगारंग गुलदस्ता है, जो कई ज़बानों और बोलियों के फूलों से सजा है। उर्दू का दामन बहुत विस्तृत है, क्योंकि इसने रवादारी की रिवायत को अपनाया और अपने दरवाज़े हमेशा खुले रखे हैं"। उनकी किताब 'उर्दू पर खुलता दरीचा' इन्हीं भावों को व्यक्त करती है। आम तौर पर सिर्फ़ कहानियों और शायरी की किताबें हाथों-हाथ बिकतीं हैं, लेकिन यह एकमात्र ऐसी किताब है, आलोचनात्मक होने के बावजूद भी, भारी मांग के चलते एक साल में जिसके तीन संस्करण प्रकाशित हुए।
गोपीचंद नारंग मानते हैं कि उर्दू ही देश की विभिन्न संस्कृतियों को जोड़ने और उन्हें क़रीब लाने का ज़रिया है। उर्दू एक गतिशील भाषा है, जो अमीर ख़ुसरो की हिंदवी और कबीर के समय से लगातार बदल रही है। मीर तक़ी 'मीर' के कलाम भी रेख़्ता में हैं, जो अलग आलम पेश करते हैं। मीर अनीस और मिर्ज़ा सलामत अली 'दबीर' की ज़बान भी उर्दू है, पर ग़ालिब से अलग है। उर्दू लंबा सफ़र तय करके प्रेमचंद, फ़िराक़ गोरखपुरी और जोश मलीहाबादी से होती हुई फैज़ अहमद फैज़ और अहमद फ़राज़ तक पहुँची। आज जावेद अख्तर की ज़बान गुलज़ार और निदा फ़ाज़ली से अलग है। यानी यह ज़बान एक बहता हुआ दरिया है, जो सामाजिक परिवर्तनों के साथ अपने किनारे बदलता रहता है।
गोपीचंद नारंग की हर किताब बरस दर बरस की गई उनकी लगन और गहन अध्ययन का नतीजा होती है। उनकी अधिकतर किताबें समालोचना पर हैं। समालोचना (तनक़ीद) के बारे में उनका कहना है - "जब तनक़ीद में शेर क्या है, अदब क्या है, शेर के मानी क्या हैं, मानी का फ़लसफ़ा क्या है, मानी में हुस्नकारी कैसे होती है आदि सवालों के जवाब मौजूद हों तो वह तनक़ीद होती है; वरना क़सीदे और बकवास तक महदूद रह जाती है"।
उर्दू के विस्तार और प्रशंसा के दायरे बढ़ाने में ग़ज़ल का बहुत बड़ा योगदान रहा है। ग़ज़ल के उत्थान, इतिहास और सफ़र की विवेचना गोपीचंद नारंग ने अपनी महान कृति 'उर्दू ग़ज़ल : हिंदुस्तानी ज़हन-ओ-तहज़ीब' में की है। इस किताब की प्रस्तावना की शुरूआत उन्होंने कुछ इन शब्दों में की है - "हुस्न-ओ-इश्क़ की बयानगी जब पूरी तरह से सम्मोहित करने वाले किसी मुहावरे के रूप में सामने आती है, तो उस चुंबकीय आकर्षण से उत्पन्न होने वाले चमत्कार को ग़ज़ल कहते हैं"। यह मात्र ग़ज़ल पर कोई विस्तृत किताब नहीं है, बल्कि इसमें ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर आज तक के ग़ज़ल के सफ़र पर रौशनी डाली गई है। फ़ारसी में इस विधा की आमद से, सूफ़ीवाद की शुरूआत, भारतीय परिवेश में उसके समावेश, भक्ति और सूफ़ी आंदोलनों के मिलाप वग़ैरह से होते हुए इसकी वर्तमान स्थिति पर इसमें विस्तार से टीकाएँ की गई हैं। ग़ज़ल तहज़ीबों के बीच का पुल है, यह तथ्य इस पुस्तक का प्राथमिक सूत्र है। अमीर ख़ुसरो ने जब अपनी हिंदवी की ग़ज़लों में फ़ारसी के शब्द मिलाए और उन्हें सूफ़ी निशस्तों में गाया, तो वह ज़बान रेख़्ता कहलाई। ग़ज़ल बहुत जल्दी ही उत्तर भारत की सभी ज़बानों में कही और सुनी जाने लगी। धीरे-धीरे इसका विस्तार पूरब, पश्चिम और दक्षिण की भाषाओं तक हो गया। इस पुस्तक में ग़ज़ल के आज तक के सभी मुख्य शायरों, बदलती धाराओं और विचारों के साथ-साथ अध्यात्म से उसके गहरे संबंध पर सिलसिलेवार चर्चा है।
उर्दू के विस्तार और प्रशंसा के दायरे बढ़ाने में ग़ज़ल का बहुत बड़ा योगदान रहा है। ग़ज़ल के उत्थान, इतिहास और सफ़र की विवेचना गोपीचंद नारंग ने अपनी महान कृति 'उर्दू ग़ज़ल : हिंदुस्तानी ज़हन-ओ-तहज़ीब' में की है। इस किताब की प्रस्तावना की शुरूआत उन्होंने कुछ इन शब्दों में की है - "हुस्न-ओ-इश्क़ की बयानगी जब पूरी तरह से सम्मोहित करने वाले किसी मुहावरे के रूप में सामने आती है, तो उस चुंबकीय आकर्षण से उत्पन्न होने वाले चमत्कार को ग़ज़ल कहते हैं"। यह मात्र ग़ज़ल पर कोई विस्तृत किताब नहीं है, बल्कि इसमें ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर आज तक के ग़ज़ल के सफ़र पर रौशनी डाली गई है। फ़ारसी में इस विधा की आमद से, सूफ़ीवाद की शुरूआत, भारतीय परिवेश में उसके समावेश, भक्ति और सूफ़ी आंदोलनों के मिलाप वग़ैरह से होते हुए इसकी वर्तमान स्थिति पर इसमें विस्तार से टीकाएँ की गई हैं। ग़ज़ल तहज़ीबों के बीच का पुल है, यह तथ्य इस पुस्तक का प्राथमिक सूत्र है। अमीर ख़ुसरो ने जब अपनी हिंदवी की ग़ज़लों में फ़ारसी के शब्द मिलाए और उन्हें सूफ़ी निशस्तों में गाया, तो वह ज़बान रेख़्ता कहलाई। ग़ज़ल बहुत जल्दी ही उत्तर भारत की सभी ज़बानों में कही और सुनी जाने लगी। धीरे-धीरे इसका विस्तार पूरब, पश्चिम और दक्षिण की भाषाओं तक हो गया। इस पुस्तक में ग़ज़ल के आज तक के सभी मुख्य शायरों, बदलती धाराओं और विचारों के साथ-साथ अध्यात्म से उसके गहरे संबंध पर सिलसिलेवार चर्चा है।
ग़ज़ल को हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियों के बीच मक़बूल बनाने में मीर तक़ी 'मीर' और 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के योगदान पर कोई दो-राय नहीं हो सकती। इन शायरों की स्थिति सदा द्वंद्वात्मक रहती है - एक तरफ तो अपनी हर मुश्किल बात को चंद अल्फ़ाज़ में कहने के लिए इनके शेरों का सहारा लिया जाता है, वहीं दूसरी ओर इनकी रचनाओं की पर्तों में छिपे जटिल अर्थों को समझने के सतत प्रयास होते रहते हैं। गोपीचंद नारंग ने इन शायरों की शायरी की सराहनीय विवेचना की है।
मीर तक़ी 'मीर' को ख़ुदाए-सुख़न क्या सिर्फ़ इसलिए कहा जाता है कि उनके अशआर और ग़ज़लें सुनते ही परमानंद की अनुभूति होती है? गोपीचंद नारंग अपनी किताब 'The Hidden Garden : Mir Taqi Mir' में उनकी शायरी की गहन विवेचना करते हुए इस सवाल का जवाब देते हैं। 'मीर' बोलचाल की ज़बान में बात करते हैं, लेकिन उनके शब्दों की सरलता का मतलब काव्यात्मक अर्थ की सरलता नहीं होता। 'मीर' ख़ुदाए सुख़न इसलिए कहलाए क्योंकि 'मीर' की शायरी जीवंत होती है, सुनने वालों के साथ बातें करती है और हर व्यक्ति अपनी समझ के साथ उससे जुड़ पाता है। इसका मुख्य कारण उनकी शायरी में बड़ी संख्या में क्रिया-पदों का होना है। ग़ालिब सहित अधिकतर शायर संज्ञा और विशेषण पदों का ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं, जिनके चलते उनके मिसरे भारी-भरकम हो जाते हैं।
देखिए 'मीर' का एक शेर और उसके क्रिया-पद
गरचे कब देखते हो पर देखो
आरज़ू है कि तुम इधर देखो
इश्क़ क्या क्या हमें दिखाता है
आह तुम भी तो इक नज़र देखो
अब बात कर लेते हैं, ग़ालिब के अंदाज़े बयां की -
ग़ालिब के शेर हर मौक़े पर कैसे काम आ जाते हैं, उनके हर शेर के कैसे इतने मानी निकल आते हैं? इन सब पहेलियों के हल भी नारंग साहब ने खोले हैं। सौ से अधिक किताबों के अध्ययन के बाद ग़ालिब पर लिखी उनकी किताब 'अर्थवत्ता, रचनात्मकता एवं शून्यता' पर साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित चर्चा में उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात विद्वान शरीफ हुसैन क़ासमी ने कहा - "इस पुस्तक को पढ़कर ग़ालिब की शायरी में पहली बार इंसान को इंसान समझने की रिवायत मिलती है। यह तो सब कहते हैं कि ग़ालिब का अंदाज़े बयां है और, पर यह किताब उनके अंदाज़े-बयां के पीछे के कारणों को बेहद शोधपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करती है।"
उनकी महान उर्दू कृतियों की पूरी साज-सज्जा और बारीकियों को बरतते हुए पठनीय ढंग से अँग्रेज़ी में अनूदित करने के लिए सुरिंदर देओल निश्चित ही बधाई और आभार के पात्र हैं।
भारतीय साहित्य, ख़ासकर उर्दू में सराहनीय योगदान और विद्वतापूर्ण कार्य के लिए साहित्य अकादमी ने अपना सर्वोच्च सम्मान 'महत्तर सदस्यता' इन्हें प्रदान की है। दिल्ली विश्वविद्यालय ने इन्हें प्रोफ़ेसर एमेरिटस के सम्मान से नवाज़ा है।
गोपीचंद नारंग ने अध्यापन के अलावा उर्दू और अदब से जुड़े कई शोबों में बा-कमाल ख़िदमत की है। जामिया मिलिया इस्लामिया के उर्दू विभाग के वे पहले हिंदू अध्यक्ष थे। थोड़े समय के लिए वे इसके उपकुलपति भी रहे। उन्होंने साहित्य अकादमी की अध्यक्षता भी की है। उर्दू अकादमी और NCPUL के उपाध्यक्ष पदों को सुशोभित किया है। साथ ही उन्होंने उर्दू अदब को साठ से अधिक बेहतरीन किताबें दी हैं। ऐसा कर पाना संयमित और अनुशासित जीवन के फलस्वरूप ही संभव हो सका है।
आलोचनात्मक और विवेचनात्मक पुस्तकों के साथ-साथ उन्होंने उर्दू ज़बान की सरल पाठ्य पुस्तकें भी लिखी हैं।
उनके ७६ वें जन्मदिन पर गुलज़ार की लिखी इस मानीखेज़ नज़्म से आइए, उन्हें थोड़ा और बेहतर जानें -
गोपीचंद नारंग को जन्मदिन पर स्वस्थ, सक्रिय और सफल जीवन की शुभकामनाएँ और बहुत-बहुत बधाई। नूर पिलाने का उनका यह सिलसिला यूँ ही जारी रहे और हम उनकी दानिशमंदी का अमृतपान करते रहें।
उनके ७६ वें जन्मदिन पर गुलज़ार की लिखी इस मानीखेज़ नज़्म से आइए, उन्हें थोड़ा और बेहतर जानें -
दो पहियों पे चलता दरिया
एक पाँव पर ठहरी झील
झील की नाभि पर रखी है
उर्दू की रौशन क़न्दील
रौशनी जब भँवराती है
तो झील भँवर बन जाती है
भँवर-भँवर, महवर-महवर
इल्म का सागर छलक रहा है
तिश्ना-लब सब ओक लगाए देख रहे हैं
छलकेगा तो नूर गिरेगा
नूर गिरेगा, नूर पीएँगे।
संदर्भ
- https://mobile.twitter.com/sahityaakademi/status/1330854586807009281
- https://scroll.in/article/981743/this-book-celebrates-the-composite-culture-of-india-that-gave-birth-to-and-nurtured-the-urdu-ghazal
- https://frontline.thehindu.com/books/article31922587.ece
- https://www.milligazette.com/Archives/2004/16-31Mar04-Print-Edition/1603200422.htm
- Rekhta.org
- Interviews and talks on YouTube
लेखक परिचय
प्रगति टिपणीस
पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। इन्होंने अभियांत्रिकी में शिक्षा प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पाँच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।
प्रगति जी नमस्ते l जाने माने साहित्यकार ,आलोचक और उर्दू भाषा को शिद्दत से परवाज़ देने वाले गोपीचंद नारंग जी की शख्सियत और साहित्य पर आपका यह खूबसूरत लेख वैसा ही सुंदर और मनभावन है जैसे सुबह की पहली किरण और गर्मी की तपती ज़मीन पर पहली बारिश सभी को भाती है l उर्दू के विकास और विस्तार में नारंग जी योगदान निर्विवाद है l "उर्दू पर खुलता दरीचा" उनका बेहद सुंदर मानीखेज आलोचना ग्रंथ है जिसमें अमीर खुसरो ,मिर्जागलिब , मीर , इकबाल , कृष्णचन्द्र गुलज़ार आदि बड़े शायरों लेखकों पर बखूबी लिखा है l अनुवाद के माध्यम से उनके उर्दू के लेख अनेक भारतीय भाषाओं के साहित्य प्रेमियों के दिलों तक पहुंचे l आदरणीय गोपीचंद नारंग जी को सादर प्रणाम l आपकी कलम को सलाम l इस मंच को सलाम l आपकी रचनात्मकता यूं ही बढ़ती रहे l दुवाएं और शुभकामनाएं l मीरा दीदी ने भी आपके लेख पर बहुत सुंदर टिप्पणी की है l
ReplyDeleteबधाई, प्रगति जी। आपके नाम एक और सुंदर आलेख चढ़ा। गोपीचंद जी का उर्दू में योगदान तो सर्वविदित भी है , निर्विवाद भी। आपने उनके कृतित्व का बहुत ख़ूबसूरत नजारा दिखाया है।गोपीचंद जी के माध्यम से आपने रेख़्ता, मीर, ग़ालिब , ग़ज़ल के लिए भी एक संदर्भ लेख तैयार कर दिया है।सराहनीय एवं संग्रहणीय। आपकी कलम की मेहनत को सलाम। आगे सफलता के लिए ढेरों शुभकामनाएँ । गोपीचंद जी की रचनात्मक साहित्यिक यात्रा को नमन।🙏
ReplyDeleteवाह ! बहुत सुंदर आलेख
ReplyDeleteगोपीचंद नारंग जी पर
विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता हुआ रोचक लेख
👌👌👌👌🙏🙏
सच में उर्दू बेहद खूबसूरत व एक अलग ही अदाएगी वाली भाषा है और प्रगति जी इस लेख को उतनी ही संजीदगी व अपनी खास अदा से पेश किया है। गोपीचंदजी के इस सारगर्भित लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई प्रगति जी।
ReplyDeleteप्रगति, उर्दू भाषा और साहित्य की एक बड़ी हस्ती गोपीचंद नारंग पर शानदार और जानदार आलेख लिखा है तुमने। इनके काम को देखते हुए इन पर इंटरनेट में बहुत कम सामग्री उपलब्ध है। उनके जीवन और काम का अतुलनीय खाँका खींचा है तुमने। निसन्देह, गोपीचन्द पर जानकारी के लिए यह एक बेहतरीन आलेख है। तुम्हें इसके लिए बधाई और शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteउर्दू में शैली विज्ञान और रूपवादी आलोचना के संस्थापक आदरणीय गोपीचंद नारंग जी को भाषाविद, प्रतिष्ठित और विचारशील लेख लिखने की ख्याति प्राप्त है। नारंग जी ने बुनियादी विषयों पर तथा तमाम शायर और कवियों के काव्य का मूल्यांकन अपनी विशिष्ट आलोचनात्मक शैली से सांस्कृतिक शब्दों में विवेचन किया है। उत्तर आधुनिक अवधारणाओं पर अतिविस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया है। आदरणीया प्रगति जी की लेखनी इस बार भी नारंग जी के आलेख के द्वारा उर्दू विस्तार और प्रशंसा के दायरे में विस्तारित हो रही है। सुस्पष्ट, संरचात्मक शब्दों से शुरुवात करके आधुनिकतावाद का साक्षात्कार करा कर अति संकीर्णता से आलेख को समायोजित किया है। अपनी लेखनी को सद्भाव और सौहार्द्र की भाषा बनाकर बड़े ही रोचक ढंग से साहित्य की विचारधारा के अनुरूप आद.गोपीचंद जी को जन्मदिन का बेहतरीन तोहफा दिया है। अप्रतिम और प्रतिभाशाली लेख के लिए प्रगती जी का हार्दिक आभार और अग्रिम आलेखों के लिए असंख्य शुभकामनाएं।🙏
ReplyDeleteप्रगति जी, हर बार की तरह आपने एक उम्दा लेख पटल पर उपलब्ध कराया। लेख के माध्यम से गोपीचंद नारंग जी के सृजन के बारे में विस्तृत जानकारी मिली। इस रोचक एवं जानकारी भरे लेख के लिये प्रगति जी को हार्दिक बधाई एवं साधुवाद।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteप्रगति जी, आपका एक और बेहतरीन लेख पढ़ने को मिला...बहुत आभार आपका। आपके इस लेख के माध्यम से, गोपीचंद नारंग जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को करीब से जानने का अवसर मिला। बहुत समृद्ध लेख। बधाई आपको।
ReplyDeletesaid...
ReplyDeleteउर्दु खूबसूरत इसलिये है क्योंकि इस में कई ज़ुबानों का हुस्न शामिल है ।
कितनी शानदार बात है यह । उतना ही शानदार और भाषाई हुस्न से लबरेज यह गागर मे सागर भरा आलेख है ।नारंग जी ने जिस बेहतरीन और सुगम्य रूप से शायरों की रचनाओं की शाब्दिक , अलंकारिक , और बिम्बविधानिक
विवेचना की है वह अद्वितिय है ।
उतना ही शोध परख आलेख है प्रगति जी का । बहुत बहुत बधाई
वाह!! एक शानदार शख़्सियत का शानदार स्वागत।
ReplyDelete"उर्दू एक रंगारंग गुलदस्ता"!! भाषा का इतना ख़ूबसूरत तरीके से सूक्ष्म विश्लेषण करने वाले गोपीचंद नारंग के जीवन को बड़े ही गहन मनन के साथ सुंदर शब्दों में पिरोया है आपने प्रगति जी।
आपको बहुत बधाई और शुक्रिया इस लाजवाब लेख के लिए।
सादर।
'दो पहियों पर चलता दरिया
ReplyDeleteएक पाँव पर ठहरी झील' शानदार आलेख, प्रगति जी। आभार और बधाई