"अपनी आँखें मुझे अपेक्षाकृत छोटी लगती हैं। मैं बड़ी और रसीली आँखों का आशिक हूँ। मेरे जाने पहचाने एक पुराने खाँ साहब कहा करते थे कि लखनऊ वालों में और कोई नहीं महज़ नज़र का दोष हुआ करता है। मेरी नज़रों में वह रूमानी ऐब कहीं कोने कतरे से चोर सा झाँकता रहता है। मेरे गालों की हड्डियाँ उभरी हैं, जो विद्रोही व्यक्तित्व की सूचक हैं। नाक नुकीली है, देख कर कोई भी समझदार ये मान जाएगा कि नाक वाला है। होंठ न पतले, न मोटे, मुँह छोटा, निचले होंठ पर एक तिल भी है। अनुभवी लोगों से सुना है कि ऐसे तिल वालों को रसीले भोजन, पानों और रसीले होंठों का सुख मिलता है। दाँत पान के प्रताप से काले तो हुए हैं, पर दो बार मंजन करने की आदत ने उन्हें दिखनौट से भद्दा नहीं बनने दिया है। सब मिला कर चेहरा बुरा नहीं है। लोगों का ध्यान एक बार तो अपनी ओर खींच लेता है। सबसे बड़ी तसल्ली इस बात की है कि मेरे चेहरे पर इश्क फ़रमाते रहने का धंधा या लफ़ंगापन अपना साइनबोर्ड कभी नहीं टाँंग पाया। देखते ही किसी को विश्वास हो जाएगा कि आदमी भला और शरीफ़ है ।"
आत्मकथात्मक दस्तावेज़ 'टुकड़े-टुकड़े दास्तान' में, अपना शब्द-चित्र बनाते हुए यह साहित्यकार और कोई नहीं , हिंदी साहित्य में अपनी गहरी पैठ बनाने वाले, पद्मभूषण से सम्मानित पंडित अमृतलाल नागर जी हैं।
हिंदी उपन्यास के तीसरे उत्थान-काल के महत्वपूर्ण उपन्यासकार, अमृतलाल नागर का जन्म १७ अगस्त, १९१६ को आगरा के गोकुलपुरा मुहल्ले के, एक सुसंस्कृत, मध्यवर्गीय गुजराती परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम पं० राजाराम नागर और माँ का नाम विद्यावती नागर है। अमृतलाल नागर के पितामह पं० शिवराम नागर सन १८९५ में लखनऊ जाकर बस गए थे। नागर जी का बचपन लखनऊ में ही बीता। नागर जी ने कालीचरण स्कूल से हाईस्कूल पास किया। जिसके बाद उनका दाख़िला क्रिश्चियन कॉलेज में हुआ। लेकिन नागर जी का मन क्लास से ज़्यादा कॉलेज की लाइब्रेरी में साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने में लगता था।
सन १९३५ में जब नागर जी के पिता का आकस्मिक निधन हो गया, तब वे मात्र १९ वर्ष के थे, और गृहस्थी का भार उनके कंधों पर आ गया। उन्होंने एक बीमा कंपनी में डिस्पैचर के पद पर ३० रुपए मासिक पर नौकरी कर ली और उन लोगों के प्रश्नों से छुटकारा पा लिया, जो जब-तब उनसे पूछा करते थे कि "अब क्या करने का इरादा है।" नागरजी पूर्ण मनोयोग के साथ नौकरी कर रहे थे, परंतु किसी बात पर अफ़सर से झड़प हो गई और उन्होंने नौकरी छोड़ दी। वे नवल किशोर प्रेस व माधुरी के संपादकीय विभाग में अवैतनिक सेवा भी करते रहे। इसके बाद सन १९४० में वे सिनेमा जगत में नौकरी करने के लिए मुंबई गए। मुंबई में बिताए ७ वर्ष के दौरान नागरजी ने फ़िल्म जगत से जुड़कर, स्क्रीनप्ले और संवाद लिखते हुए धन और यश दोनों अर्जित किए। सन १९५३-१९५५ के दौरान वे आकाशवाणी लखनऊ में नाटक विभाग में प्रोड्यूसर के पद पर रहे। वहीं हिंदी साहित्य के एक श्रेष्ठ और स्थापित साहित्यकार के रूप में उनकी पहचान बनी और लखनऊ शहर नागर जी की साहित्यिक साधना की कर्मस्थली बना।
अत्यंत विनोदप्रिय, मृदुभाषी और प्रियदर्शी नागरजी के रहन-सहन और व्यवहार में लखनवी नज़ाकत और नफ़ासत रची-बसी हुई थी। उनके व्यक्तित्व का यही रूप उनके उपन्यासों में भी झाँकता हुआ दिखाई देता रहा है। वरिष्ठ पत्रकार और कथाकार दयानंद पांडे जी के शब्दों में,
"हम फ़िदाए लखनऊ, लखनऊ हम पे फ़िदा" की इबारत दरअसल नागर जी पर ऐसे चस्पा होती है गोया लखनऊ और नागर जी दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हों। उन की सभी रचनाओं में सिर्फ़ एक ही शहर, लखनऊ धड़कता हो.......और उस लखनऊ में भी चौक। चौक ही उन की कहानियों में खदबदाता रहता है, ऐसे जैसे किसी पतीली में कोई भोज्य पदार्थ। आते तो वे बनारसी बाग और सिकंदर बाग तक हैं, पर लौट-लौट जाते हैं चौक।"
यों तो मुंशी प्रेमचंद, श्रीलाल शुक्ल, कामतानाथ जी सहित बहुत से लेखकों ने लखनऊ को अपनी कहानियों, और उपन्यासों में रचा है। पर जैसा नागर जी ने लखनऊ को अपने लेखन से जीवंत किया है वह अद्भुत है। नागर जी अपने व्यक्तित्व और सामाजिक अनुभवों की कसौटी पर अपने विचारों को कसते रहे हैं। उन्होंने विशिष्टता और रंजकता दोनों तत्वों को अपनी रचनाओं में समेटने का सफल और समर्थ प्रयोग किया है। उन्होंने न तो परंपरा को नकारा और न आधुनिकता से मुँह मोड़ा। नागर जी ने अपने लेखन में लचीलेपन को जगह दी है। जगत के प्रति उनकी दृष्टि एकांगदर्शी नहीं रही है, वे उसकी अच्छाई और बुराई दोनों को देखते हैं। वे अतिरेकवादी और हठाग्रही होने से बचते रहे हैं। नागर जी के मानवतावादी आचरण के विषय में उनकी सुपुत्री अचला नागर जी बताती हैं, "वे हमसे कहते थे हमारे यहाँ पूजा होती है, होती रहेगी, ये अच्छी बात है। लेकिन कोई तुम्हारा धर्म पूछे तो हमेशा कहना मानवता। एक बार मेरे स्कूल के फ़ार्म में धर्म के कॉलम में उन्होंने लिखा था, मानवता। वे हमेशा कहते थे कि किसी से मिलते समय हमेशा जय हिंद बोलो क्योंकि इससे धर्म बोध नहीं होता।"
किस्सागोई में माहिर अमृतलाल नागर जी के लेखन पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था, मुंशी प्रेमचंद और शरदचंद्र चटोपाध्याय का। अपनी आत्मकथा, 'टुकड़े-टुकड़े दास्तान' में नागर जी लिखते हैं, "शरद बाबू हिंदी मज़े की बोल लेते थे। उन्होंने मुझे एक सीख दी थी, जो लिखना अपने अनुभव से लिखना।" नागर जी के सहयोगी प्रोफ़ेसर एस० पी० दीक्षित बताते हैं, "उन्होंने अपने लेखन के तीन सूत्र बनाए थे। एक तो यह कि जो सलाह उन्हें प्रेमचंद से मिली थी कि जो लिखो वास्तविक लिखो। दूसरी बात उन्होंने शरदचंद्र से सीखी थी कि पहले फ़ील करो, फिर लिखो और तीसरी बड़ी बात उनसे बाबा रामजी ने कही थी कि अपनी कलम से किसी की निंदा कभी मत करना।" इन तीनों चीज़ों का निर्वाह वे आजीवन अपने लेखन में करते रहे। नागर जी ने अपने कथा-कर्म में भाषिक खिलंदड़ेपन, चामत्कारिक किस्सागोई और जीवंत नाट्यधर्मी संवादों को भरपूर जगह दी है। डॉ० रामविलास शर्मा लिखते हैं, "नागर जी पात्रों के नख-शिख, बोली-ठोली की विशेषताओं के अलावा उनके मन में पैठकर, उनके साथ साँस लेते, दुख सहते और संघर्ष करते हैं।" नागर जी अपने उपन्यास अधिकतर बोल कर ही लिखवाते थे। अपने ५५ वर्ष के लेखनकाल में उन्होंने ७५ कृतियों की रचना की। उनकी पहली रचना एक कविता थी, जो उन्होंने १९२८-२९ में लिखी, जब "साइमन-कमीशन गो बैक" का जुलूस निकला था। लाठी चार्ज से उपजे क्षोभ और आवेश में कविता फूट पड़ी थी। "कब लौं कहौ लाठी खाया करें, कब लौं कहौ जेल सहा करिये।" यह कविता दैनिक आनंद में छपी थी। चकल्लस पत्रिका के संपादन के दौरान नागर जी ने कई पैरोडियाँ भी लिखीं। शुरुआत में नागर जी ने मेघराज इंद्र के नाम से कविताएँ लिखी, फिर तस्लीम लखनवी के नाम से व्यंग्यपूर्ण स्केच और निबंध लिखे और कहानियाँ अपने मूल नाम से ही लिखीं।
उनका पहला कहानी-संग्रह 'वाटिका' वर्ष १९३५ में प्रकाशित हुआ, जिसे पढ़कर प्रेमचंद जी ने एक पोस्ट कार्ड में उन्हें लिखा, "यह तो गद्यकाव्य की सी चीज़ें हैं। मैं रियलिस्टिक कहानियाँ चाहता हूँ, जिनका आधार जीवन पर हो, जिनसे जीवन पर कुछ प्रकाश पड़ सके। मैंने वाटिका के दो-चार फूल सूंघे, अच्छी खुशबू है।"
१९३८ में उनका दूसरा कहानी संग्रह, 'अवशेष' छपा, जिसमें जीवन के प्रति यथार्थपरक दृष्टि रखती, शकीला की माँ, जंतर-मंतर तथा बेबी की प्रेम कहानी जैसी रचनाएँ हैं। १९४१ में प्रकाशित कथा-संग्रह, 'तुलाराम शास्त्री' में गहन सामाजिक सरोकार देखा जा सकता है। इस विकास यात्रा का श्रेय नागरजी प्रेमचंद को देते हैं। नागर जी ने ७५ कहानियाँ लिखी, जो 'एक दिल हज़ार अफ़साने' में संगृहीत हैं। १९४०-४७ की अवधि में नागर जी ने हिंदी साहित्य को दो महत्वपूर्ण कृतियाँ सौंपी। १९४३ में द्वितीय महायुद्ध के दिनों बंगाल में पड़े अकाल पर आधारित उपन्यास, 'महाकाल' दो अर्थों में महत्वपूर्ण रहा है। यह नागर जी का पहला उपन्यास और किसी हिंदी भाषी लेखक द्वारा बंगाल की पृष्ठभूमि पर रचा गया पहला उपन्यास है। दूसरी कृति, 'सेठ बांकेमल' हास्य-व्यंग्य का पुट लिए हुए रेखाचित्र है। इस हास्य-व्यंग्य कृति में सेठ बांकेमल नाम के एक ऐसे विनोदी और हाजिरजवाब चरित्र को, आगरा की बोली में रचा-पगा बताया गया है, जिसके पास तमाम जीवनानुभव है और एक गहरी व पैनी दृष्टि है।
६०० पृष्ठीय एक वृहत्काय उपन्यास, 'बूँद और समुद्र', १९५६ में प्रकाशित हुआ। जिसका मुख्य क्षेत्र लखनऊ का चौक मोहल्ला और उसकी गलियाँ हैं। सभी पात्र इन गलियों से बाबस्ता हैं। 'बूँद' व्यक्ति और 'समुद्र' समाज का प्रतीक है। उपन्यास व्यक्ति के महत्त्व को रेखांकित करता है। आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया 'अमृत और विष' नागर जी का एक अन्य महत्वपूर्ण उपन्यास है। १९६७ में साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत इस उपन्यास का मुख्य पात्र स्वतंत्रता सेनानी और उपन्यासकार अरविंद शंकर है। उपन्यास में मानसिक ऊहापोह, आर्थिक संघर्ष और नई व पुरानी पीढ़ी के द्वंद्व का मार्मिक चित्रण है।
'एकदा नैमिषारण्य' उपन्यास में अनेक उपकथाओं के माध्यम से भारत के पौराणिक और ऐतिहासिक काल को एक अनूठे ढंग से समेटा गया है। भारत की संपूर्ण सांस्कृतिक विकास की गौरव गाथा को प्रस्तुत करते इस उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष बिंदु है - देश की दो मुख्य धाराओं- ब्राह्मण और श्रमण- का नैमिष आंदोलन से समन्वित होना! 'मानस का हंस' और 'खंजन नयन' उपन्यास, महाकवि द्वय तुलसीदास एवं सूरदास जी के जीवनी पर आधारित हैं। इनकी रचना मध्यकालीन भारत के वास्तविक चरित्रों को लेकर की गई है। नागर जी अपनी हर कृति की रचना करने से पूर्व, उस पर बहुत गृहकार्य भी करते थे। जिस विषय पर लिखते थे, उस क्षण उसी में जीते थे और उसी की खोज में निकल पड़ते थे।
'नाच्यौ बहुत गोपाल' नागर जी का सर्वाधिक यथार्थवादी उपन्यास है, जिसमें मेहतर समाज के साथ-साथ नारी-शोषण की द्विस्तरीय मार्मिक गाथा है - एक, नारी की सामान्य शोषण-कथा और दूसरे, एक ब्राह्मणी के मेहतरानी बनने पर उसके अपमान की कहानी। यह समाजशास्त्रियों के लिए चिंतन का विषय तो है ही, जागरूक पाठकों को भी वैचारिकता के सागर में उतरने पर विवश करता है।
'बिखरे तिनके' में सामाजिक भ्रष्टाचार और उसके सहारे सामाजिक उन्नति की प्रवृत्ति पर प्रहार है। निम्नवर्ग की नई पीढ़ी जल्द-से-जल्द मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय, उच्चवर्गीय हो जाना चाहती है। और इस प्रवृत्ति के चलते राजनीति और अपराध में साठ-गाँठ आदि का सहज चित्रण भी द्रष्टव्य है। 'अग्निगर्भा' में आधुनिक नारी, जो शिक्षित होने के बावजूद दहेज के दानव के चंगुल में है, की दारुण गाथा है। यहाँ पुरुष बहुल समाज की चालाकियाँ स्त्री की गुणवत्ता पर हावी हैं। नायिका एक कॉलेज में लेक्चरर है। पति हर माह पत्नी का वेतन दहेज की किश्त के रूप में छीनता रहता है, क्योंकि उसने बिना दहेज के विवाह करके निर्धन ससुर पर कृपा जो की थी। आर्थिक शोषण की यह चक्की तब तक चलती रहती है, जब तक उसकी हत्या नहीं हो जाती है। नारी युगों-युगों से प्रताड़ित रही है। कभी उसे चुराया गया तो कभी उसे बेचा गया। आज भी सूनी सड़कों पर नारी का अकेले निकलना कठिन है। नागर जी ने अपनी रचना-यात्रा के अंतिम पड़ाव में 'करवट' और 'पीढ़ियाँ' उपन्यासों की रचना की। दोनों ही उपन्यास कथारस और इतिहास-रस से परिपूर्ण औपन्यासिक दस्तावेज़ हैं। 'करवट' १८५४-१९०२ तक के समय को समेटता है, जबकि 'पीढ़ियाँ' १९०५-१९८६ तक के काल-खंड को। 'शतरंज के मोहरे' नागर जी का एक ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें ईस्ट इंडिया कंपनी और अवध के नवाबी दौर की नीतियों और १८५७ के ग़दर की पृष्ठभूमि का मार्मिक चित्रण है। 'सुहाग के नूपुर' तमिल महाकाव्य 'शिलप्पदिकारम्' की कथावस्तु पर आधारित उपन्यास है। उपन्यास में दो नारी चरित्र हैं - कुलवधू कन्नगी और नगरवधू माधवी। एक पात्र है - धनकुबेर कोवलम जो उद्दाम भोगेच्छा से ग्रसित है। चेलम्मा एक और नारी पात्र है, जो देहार्पण के बावजूद मुक्तावस्था को प्राप्त है। 'ग़दर के फूल' अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति-आधारित स्मृतियों और किंवदंतियों का प्रमाणिक दस्तावेज़ है। पुस्तक में उ० प्र० के अवध क्षेत्र के दस जनपदों में बिखरे ग़दर के फूलों को एकत्रित कर आस्था से सजाया गया है।
'ये कोठेवालियाँ' वेश्याओं से की गई भेंट-वार्ताओं का संग्रह है, जिसमें चौक की गलियों में तत्समय वेश्यालयों में जाकर वेश्याओं से मिलकर उनकी कहानियों को पुस्तक का रूप दिया गया है। पुस्तक में जहाँ वेश्याओं से प्राप्त उनकी भुक्तभोगी त्रासद कहानियाँ हैं, वहीं वेश्या, गणिका आदि के ऐतिहासिक पक्ष को भी खंगाला गया है। पितृसत्तात्मक सभ्यता के निर्मम सिद्धांत की भी पड़ताल करती यह पुस्तक गहन खोज और सामाजिक विश्लेषण का दस्तावेज़ है। 'टुकड़े-टुकड़े दास्तान' में नागर जी के आत्मसंस्मरणात्मक निबंध संगृहीत हैं। इनमें कुछ ऐसे निबंध हैं, जो उनके बाल्यजीवन एवं पारिवारिक परिचय प्राप्त करने और महत्वपूर्ण कृतियों की रचना-प्रक्रिया जानने का सहज माध्यम बनते है।
इसके अतिरिक्त नागर जी ने नाटकों, बाल साहित्य, अनुवादों पर भी कलम चलाई है। उनके नाटक समकालीन समाज का प्रतिबिंब हैं। तात्कालिक युग की निराशाजनक परिस्थितियों और उनके सांस्कारिक आस्थावान स्वभाव की टकराहट से नागर के नाटक प्रेरित हैं। 'युगावतार' उनका अत्यंत महत्वपूर्ण और सर्वाधिक मंचित नाटक है।
नागरजी का व्यवहार आत्मीयतापूर्ण था और प्रथम भेंट में ही वह व्यक्ति के साथ सहज भाव से घुल-मिल जाते थे। उनके द्वारा संपादित हास्य-व्यंग्य की पत्रिका 'चकल्लस' को देखकर आचार्य पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी ने यह टिप्पणी की थी - "चकल्लस का आठवाँ अंक देखकर मेरा मुर्दा दिल भी जिंदा सा हो उठा।"
उनके मुँहबोले शिष्य मनोहर श्याम जोशी अपनी किताब 'लखनऊ मेरा लखनऊ' में लिखते हैं कि "नागरजी की जिस चीज़ से मैं चकित चमत्कृत रह जाता था, वो थी उनकी ज़िंदादिली।" नागर जी के सुदृढ़ व्यक्तित्व को लक्ष्य करके वरिष्ठ कवयित्री महादेवी वर्मा जी ने एक कविता लिखी थी, जिसकी अंतिम पंक्ति इस प्रकार है - "जैसा काम तुम्हारा वैसे ही तुम अमृतलाल हो।"
"ज़िंदगी लैला है, उसे मजनूँ की तरह प्यार करो।" इस पंक्ति को कहने और जीने वाले अमृतलाल नागर जी ने, ७४ वर्ष की उम्र में अंतिम साँस ली। जबकि, उनके ७५वें वर्ष के लिए अमृत महोत्सव मनाए जाने की तैयारियाँ चल रही थीं। जो साहित्य हमें जीवन की सार्थकता का बोध करा सके, वही कल्याणकारी और कालजयी होता है। नागर जी का साहित्य अक्षरशः इसी कोटि का रहा है। उनकी स्मृति को नमन।
संदर्भ
टुकड़े-टुकड़े दास्तान : अमृतलाल नागर की आत्मकथा।
मेरे साहित्यिक गुरु अमृतलाल नागर - वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र वर्मा, जनसंदेश टाइम्स।
www.hindisamay.com/content/7159/1/लेखक-शरद-नागर-की-लेख-अमृतलाल-नागर-जीवन-वृत्त.cspx
https://www.hindinotes.org/2019/08/pandit-amrit-lal-nagar-ka-jeevan-parichay.html
बी० एस० सी० ( जीव विज्ञान)
गृहिणी
संप्रति : स्वतंत्र लेखन
हिंदी से प्यार है 😊
किताबें पढ़ने में मन रमता है।
पिछले दो साल से 'कविता की पाठशाला' से जुड़ी हूँ।
ईमेल - khareabha05@gmail.com
अमृतलाल नागर की बहुत सारी कृतियाँ मैने पढ़ी हैं।बहुत सुंदर आलेख आभा जी।
ReplyDeleteमानवीयता एवं यथार्थवाद के शसक्त पक्षधर श्री अमृतलाल नागर पर प्रस्तुत आभा खरे जी का यह लेख पढता हीं चला गया।उनके साहित्य और जीवन से जुडे विभिन्न पहलुओं को योजनाबद्ध सजाया है। उम्दा लेख प्रस्तुति हेतु आपको बहुत बहुत बधाई ।प्रताप कुमार दास
ReplyDeleteअमृतलाल नागर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को बखूबी रेखांकित करता सरस व रोचक आलेख। बहुत बहुत बधाई आभा जी।
ReplyDeleteसुंदर आलेख।नागर जी के कृतित्व एवं उसकी पृष्ठभूमि का विस्तृत एवं रोचक वर्णन है। बधाई , आभा जी । 💐💐
ReplyDeleteआभा जी, आपने अमृतलाल नगर की मुख्य कृतियों की ऐसी ख़ुशबू अपने आलेख से बिखेरी है जो पाठकों को उन खूबसूरत कृतियों की ओर खींच ले जाएगी। आपने उनके व्यक्तित्व और सृजन-यात्रा का एक सुन्दर ख़ाका खींचा है। जीवन के प्रति उनके मूल सूत्र "ज़िन्दगी लैला है, उसे मजनू की तरह प्यार करो" से भी वाक़िफ़ कराया। लखनऊ की कुछ गलियों और इलाक़ों की सैर करा दी, जिसने मेरी कई सुन्दर यादों को ताज़ा कर दिया। आपको इस लेख के लिए बहुत-बहुत बधाई और आभार।
ReplyDeleteआभा जी, आपने अमृतलाल नागर जी के व्यक्तित्व और सृजन-यात्रा को समेटे हुए एक सुन्दर लेख लिखा है। आपको इस रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteहिंदी साहित्य में यूँ तो आत्मकथाएँ बहुत लिखी गई पर बहुत कम रचनाकारों ने अपना ख़ुद का आत्मचित्रण कागज पर उतारा है। उनमें से पदमभूषण अमृतलाल नागर जी सर्वोत्तम स्थान पर आते है जो खांटी लखनवी जाने जाते है। आदरणीया आभा जी आपने बहुत ही अन्वेषण करके यह लेख प्रस्तुत किया है। वैसे नागर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को सीमित शब्दों में समेटना आसान नही रहा होगा फिर भी आपकी अतुलनीय लेखनी का जादू नागर जी के जीवनवृत्तांत और साहित्यकर्म को समेटने में कामयाब रहा। इस सुसंक्षिप्त और मज़ेदार आलेख के लिए आपका हार्दिक अभिनंदन और बहुत सारी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteअमृतलाल नागर पर आभा खरे द्वारा लिखा गया आलेख अति महत्वपूर्ण है. इसका एक कारण यह भी है कि आभा खरे लखनऊ की रग रग से वाकिफ है और अमृतलाल नागर जी तो लखनऊ के पर्याय ही रहे हैं. आभा खरे के पास सशक्त भाषा है और वे एक संवेदनशील रचनाकार हैं. नागर जी पर उन्होंने महत्वपूर्ण सामग्री शोध करके प्रस्तुत की है जो पठनीय तो है ही संग्रहणी भी है. महादेवी वर्मा जी द्वारा लिखी गई नागर जी के संदर्भ में कविता आभा जी की एक विशेष खोज है यदि संभव हो तो वह कविता भी पोस्ट करें ताकि अन्य सुधी जन उसे पढ़कर लाभान्वित हो सकें, इस लेख के लिए आभा खरे को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ.
ReplyDelete-डॉ० जगदीश व्योम
नागर जी पर शानदार आलेख लिखा है आभा जी. मेरा सौभाग्य रहा है कि १९७० के दशक में जब वे खंजन नयन की रचना कर रहे थे और मथुरा में उन्होंने अपनी पुत्री ैजला नागर के साथ निवास किया था ( जो उस समय आकाशवाणी मथुरा में कार्य करती थी ) तब उनसे कई बार भेंट हुई थी और उनसे बातें करना एक सुखद अनुभूति थी. इस सुन्दर आलेख के लिए सादर धन्यवाद
ReplyDeleteअत्यंत समृद्ध भाषा में रोचक और जानकारीपूर्ण लेख,आभा। आदरणीय नागर से परिचय कराने का बहुत बहुत धन्यवाद। उम्दा आलेख के लिये ढेरों बधाइयाँ।
ReplyDeleteवाह दीदी, व्यस्त होने से आज पढ़ पाई हूँ।नागर जी को जितना पढ़ा उस स्मृति को आपकी लेखनी ने वापस जीवंत कर दिया। आलेख पढ़
ReplyDeleteआपकी प्रभावी लेखनी से परिचित होने का मौका मिला।बेहतरीन आलेख लिखने के लिए बधाई।