एक दिन मनुष्य सूर्य बनेगा
क्योंकि वह आकाश में पृथ्वी का
और पृथ्वी पर आकाश का प्रतिनिधि होगा| (उत्सवा)
पृष्ठभूमि
माँ की मृत्यु और पिता के असंग व्यक्तित्व से ग्रहीत संस्कार ने उनके मूल चरित्र का निर्माण किया| वहीं चाचा के उदार चरित्र ने उनके व्यक्तित्व को उन्मुक्त बनाया| चाचा ने खुले दिल से उन्हें अपनाया था किन्तु एक बार की भर्त्सना ने उनके मन को चाचा से फिरा दिया| कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य होने के बावजूद जीवन के कई प्रश्न उन्हें परेशान करते रहे| उन सवालों के जवाब पाने के लिए वे उस मूल्य दृष्टि को ढूँढते रहे जिसके माध्यम से वे उन सवालों को सुलझा सकें| उन्होंने आल इण्डिया रेडियो, इलाहबाद में कार्यक्रम अधिकारी के रूप में कार्य किया| यहीं उनकी मुलाक़ात मुक्तिबोध से हुई| हालाँकि, रेडियो के अनुभव बहुत सुखद नहीं रहे| जब उन्हें लेखन अथवा नौकरी में से एक चुनने को कहा गया तब उन्होंने लेखकीय स्वातंत्र्य को अपनाया और आजीवन साहित्य की ही सानिध्यता में रहे| उनके साहित्य में उदार चेतना, दर्शन की उदात्तता, मानव मन की विशालता, मनुष्य मन की उलझनें, राष्ट्रीय संघर्ष आदि एक साथ दिखाई देते हैं| संस्कार और शिल्प दोनों ही स्तर पर वे गद्य और पद्य में अप्रतिम हैं| उनके जीवन में आर्थिक संघर्ष बहुत अधिक रहे, किन्तु रोटी और आर्थिक शोषण को आधार बनाकर काव्य रचना में लिप्त होने की बजाय उन्होंने काव्य के अन्य रसों को अपना आधार बनाया| संघर्ष को जीवन की उदात्त भूमि पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय उनकी कविताओं को जाता है| साम्यवादी वर्ग के साथ होते हुए भी वे मार्क्स की सैद्धांतिकी में अपने सवालों के जवाब नहीं खोज सके और अंतत: वेदों की ओर उन्मुख हुए| वे लिखते भी हैं, “जीवन के अधिक गहरे प्रश्न मेरे मन में उठते रहते थे और उनका समाधान मुझे कम्युनिस्ट दर्शन में नहीं मिलता था|’ अंततः भारतीय आर्ष परम्परा उनके सवालों के जवाब के रूप में सामने आया और उनकी औपनिषदिक चेतना तथा वैष्णवता जागृत हुई| साम्यवाद के पश्चात नरेश मेहता ने गांधी-दर्शन का भी अध्ययन किया| वे गांधी के जीवन और दर्शन से प्रभावित होकर लिखते हैं, ‘असल में गांधी को समझने में हर आदमी से भूल होती है| गांधी के अलावा कोई भी व्यक्ति - चाहे वह जवाहरलाल नेहरू हों, सरदार पटेल हों अथवा सुभाषचंद्र बोस हो - भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई का पर्याय नहीं है (उत्तर कथा )|’
साहित्यिक सफर
नरेश मेहता ने उपन्यास और कविताएँ दोनों लिखीं|दोनों ही क्षेत्रों में वे सफल हुए पर कविता के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियाँ साहित्यिक समाज में अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं| प्रकृति, मिथक, भारतीय कौटुम्बिक चेतना और मनुष्यता की जय उनके काव्य के विषय हैं| वे लिखते हैं,
अविश्वास मत करना
प्रत्येक पगडंडी से मानुष-गंध आती है
किसी भी मन्त्र को सूंघो
किसी भी स्तोत्र को छुओ
मानुष की गंध और जयकार दिखाई देगी
(क्या कुछ भी नहीं- उत्सवा)
संशय की एक रात में नरेश मेहता राम प्रेम, करुणा और अहिंसा का संदेश देते हैं| वे किसी भी तरह युद्ध को टालना चाहते हैं| युद्ध के बाद की भयावहता उन्हें इतनी त्रासद लगती है कि रक्तस्नात कदमों से वे सीता को वापस नहीं पाना चाहते| वे लक्ष्मण को भी कहते हैं ‘मैं केवल युद्ध को बचाना चाहता रहा हूँ बन्धु’ (संशय की एक रात) भारत से लेकर विश्व तक युद्धों की परिणति झेल चुकी मानवता किस तरह त्राहि माम कर रही है, ये रचनाकार से छिपा नहीं| ऐसे में युद्ध की बर्बरता के कारण नरेश मेहता के राम उसके पक्ष में नहीं हैं| इसी तरह प्रकृति को वेद ऋचा, फूल को मन्त्र मानना उसी मानवीय दृष्टि का प्रसार है जहाँ मनुष्य और प्रकृति एकमेक हो जाते हैं और प्रकृति के सहज रूप में मनुष्य को अपना अस्तित्व दिखाई देने लगता है:
धरती को कहीं से छुओ
एक ऋचा की प्रतीति होती है
नरेश मेहता के साहित्य में अनेक विचारधाराओं का समन्वय मिलता है - मनोविज्ञान, मार्क्सवाद, गांधीवाद और अस्तित्ववाद! उनके उपन्यासों में ये सारी विचारधाराएँ अलग-अलग जगहों पर दिखाई देती हैं| डूबते मस्तूल, धूमकेतु एक श्रुति, यह पथ बन्धु था, नदी यशस्वी है आदि उपन्यासों में उन्होंने युद्ध और शोषण का विरोध किया है और व्यक्ति की अस्मिता को महत्त्व दिया है| अक्सर यह कहा जाता है कि उनकी रचनाओं की भूमि वेद-वेदान्त और वैष्णव चेतना पर आधारित है पर उनके उपन्यासों में विषयों की इतनी विविधता मिलती है कि यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं होगा| उनके उपन्यासों में शिक्षा व्यवस्था की स्थिति, नारी का महत्त्व, भ्रष्टाचार का विरोध, नारी समता जैसे तत्व दिखाई देते हैं| वे आधुनिक मूल्यों के अनुसार शिक्षा ग्रहण करने पर बल देते हैं –
‘खूब पढ़ना चाहिए| लेकिन एक बात याद रखना कि केवल कोर्स की किताबें पढ़ने से ही काम नहीं चलता है| अपने देश के बारे में भी जानना चाहिए’ (नदी यशस्वी है)
भाषा:
नरेश मेहता की भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली है| ‘काव्य की भाषा’ पर विचार करते हुए नरेश मेहता लिखते हैं, ‘काव्य भाषा को शब्द और अर्थ से मुक्ति दिलाने की प्रक्रिया है| काव्य भाषा और अर्थ इन तीनो से असंग मन्त्रात्मकता ही शुद्ध काव्यात्मकता है’| उनकी भाषा वेद- वेदान्त, भारतीय संस्कृति और आर्ष परम्परा से बनी है| वैष्णवी संस्कृति के रूपक उनके काव्य में प्रक्रृति और संस्कृति की उदात्तता को दर्शाती है| काव्य की भाषा जहाँ वेदान्तिक चेतना से बनी है वहीं उपन्यास की भाषा सहज और सामान्य मनुष्य की भाषा है| नरेश मेहता की रचनात्मक यात्रा ऊर्ध्वमुखी है, मनुष्य की जय-भावना से संयुक्त है, मानवीयता की स्थापक है| ऐसे रचनाकार की प्रेम और उदात्त चेतना को वरणीय माना जाना चाहिए|
सन्दर्भ ग्रन्थ:
१. नरेश मेहता कविता की ऊर्ध्व यात्रा: राम कमल राय
२. हिन्दी के निर्माता: कुमुद शर्मा
३. नरेश मेहता रचना-संचयन : प्रभाकर श्रोत्रिय
४. नरेश मेहता का उपन्यास साहित्य: मन्दाकिनी मीना
५. प्रवाद पर्व: नरेश मेहता
लेखक परिचय:
डॉ. हर्षबाला शर्मा, इन्द्रप्रस्थ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। अनुवाद, रंगमंच और भाषा विज्ञान का विशेष रूप से अध्ययन-अध्यापन करती हैं| कहानियाँ और आलोचना लिखने में रुचि है|
इस सकारात्मक दर्शन से भरे साहित्यकार से परिचय कराने के लिए बहुत आभार। यहाँ उद्धृत कविता की पंक्तियों को पढ़ रचनाकार को और पढ़ने की इच्छा जागृत हुई। हिंदवी में उनकी बड़ी सुंदर रचना 'धूप की भाषा' पढ़ी।
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार ऋचा जी
ReplyDeleteनरेश मेहता जी के जीवन एवं साहित्य यात्रा को वर्णित करता यह लेख बहुत रोचक है। हर्षबाला जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteहर्षबाला जी, आपके आलेख से नरेश मेहता के कृतित्व और उनकी मार्क्सवाद से उपनिषदों तक की वैचारिक यात्रा को जानने का अनुपम अवसर मिला, आपसे उनका उत्तम परिचय प्राप्त हुआ। आपको बधाई और तहे दिल से आपका शुक्रिया।
ReplyDeleteप्रगति जी, दीपक जी आपकी टिप्पणियों से मेरा उत्साहवर्धन हुआ और लिखने की प्रेरणा मिली।आपका बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteप्रकृति,मिथक,भारतीय कौटुम्बिक चेतना और दर्शन की धरातल पर सृजित नरेश मेहता का सृजन कर्म वास्तव में सार्वभौम जीवन दर्शन का साहित्य।
ReplyDeleteआपको आपके आलेख हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद!