भुवनेश्वर को आलोचकों से प्रेम और सह्रदयता नहीं मिली। फिर भी कुछ समकालीन आलोचकों, कवियों ने उनको सम्मान ही नहीं दिया, बल्कि उनकी प्रतिभा को पहचान उनकी रचनाओं के प्रकाशन की व्यवस्था भी की। प्रेमचंद उनमें अग्रणी थे। भुवनेश्वर से स्वर और ज़मीन में पूरी तरह अलग होने के बावजूद प्रेमचंद उन्हें ‘हंस’ में छापते ही नहीं, बल्कि उनके नाज़-नखरे भी उठाते थे। प्रेमचंद स्वयं छायावादी शब्दावली से भिन्न नई भाषा तलाश रहे थे और धीरे-धीरे आदर्श की ज़मीन से यथार्थ की ओर आ रहे थे। पर भुवनेश्वर तो आदर्श की धज्जियाँ उड़ाने के लिए आए थे, वे यथार्थ की निर्मिति इतनी निर्ममता से करते थे, कि उनको छापने वाले प्रेमचंद भी कहने के लिए विवश हो जाते थे; "भुवनेश्वर प्रसाद जी में प्रतिभा है, गहराई है, दर्द है, पते की बात कहने की शक्ति है, मर्म को हिला देने की वाक् चातुरी है। काश! वह इसका प्रयोग ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’ जैसी रचनाओं में कर पाते! ऑस्कर वाइल्ड के गुणों को लेकर क्या वे उनके दुर्गुणों को नहीं छोड़ सकते?”
भुवनेश्वर की पहली एकांकी ‘श्यामा: एक वैवाहिक विडम्बना’ १९३३ में प्रेमचंद ने प्रकाशित की। ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’ तथा ‘शैतान’ का प्रकाशन भी प्रेमचंद ने ही किया। यहीं से भुवनेश्वर को साहित्य जगत में स्थान मिला। भुवनेश्वर की किताब 'कारवाँ' की समीक्षा में प्रेमचंद लिखते हैं, " 'कारवाँ' हिंदी साहित्य के इतिहास में एक नई प्रगति का प्रवर्तक है, जिसमें शॉ और ऑस्कर वाइल्ड का सुंदर समन्वय हुआ है। अभी तक हमारा हिन्दी ड्रामा घटनाओं, चरित्रों और कथाओं के आधार पर ही रखा गया है। कुछ समस्या नाटक भी लिखे गए हैं। जिनमें रूढ़ियों या नए-पुराने विचारों का खाका खींचा गया है, पर सब कुछ स्थूल, घटनात्मक दृष्टि से हुआ है, जीवन और उसकी भिन्न-भिन्न समस्याओं पर सूक्ष्म, पैनी, तात्त्विक, बौद्धिक दृष्टि डालने की चेष्टा नहीं की गई, जो नए ड्रामा का आधार है। "
भुवनेश्वर प्रगतिशील लेखक संघ के आरंभिक युवा सदस्यों में से थे। इलाहाबाद में ही उनकी मुलाक़ात राम विलास शर्मा जी और शमशेर बहादुर सिंह से हुई। दोनों ही भुवनेश्वर से प्रभावित थे। रामविलास जी से तीखी बहसों का उल्लेख करते हुए ‘पुरखों के कोठार’ में भारत यायावर ने लिखा है ‘अपने निरंकुश स्वभाव के बावजूद भुवनेश्वर में कुछ ऐसी बातें थी, कि रामविलास जी के मन में उनके प्रति सह्रदयता थी ...अनैतिकता का उन्होंने ऐसा चरित्र बनाया था, कि लोग उसे पचा नहीं पाते थे। वे बदनाम बनकर जीना चाहते थे।
शमशेर बहादुर सिंह भी भुवनेश्वर को बहुत मानते थे। वसुधा के १९५८ अंक में छपी शमशेर की कविता भुवनेश्वर के जीवन की असली झाँकी दिखाती है –
फ़कीरों में, गिरहकट, अपनी बोसीदा
शमशेर बहादुर सिंह भुवनेश्वर को याद करते हुए एजरा पाउंड और इलियट का उल्लेख भी करते हैं, जिनका ज़िक्र अक्सर भुवनेश्वर आपनी बात में किया करते थे। भुवनेश्वर की डिग्री के संदर्भ में कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं मिलते, इसलिए उन्होंने इतना अध्ययन कैसे किया यह तो पता नहीं, पर युग परिवेश को देखने की उनकी दृष्टि अनूठी थी, जो उनके लेखन में साफ़ ज़ाहिर होती है। भुवनेश्वर ने पहली बार अपनी रचनाओं के माध्यम से मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों को ललकारा। वे ब्रेख्त के समान पूरी इमारत को पलटकर खड़ा कर देते हैं, जिससे एक क्षण के लिए ही सही, पर आदमी रुक कर विचार तो करे। विचार की यह यात्रा भुवनेश्वर के साहित्य में इतनी सघन है, कि बेचैनी पैदा करने लगती है और बगलें झांकते हुए हम उसके उत्स पश्चिमी साहित्य में ढूँढने लगते हैं। भुवनेश्वर अपने साहित्य में पश्चिम की छाप से इंकार नहीं करते। अक्सर भुवनेश्वर को पश्चिम की छाप का रचनाकार मानकर ख़ारिज कर दिया जाता है, पर भुवनेश्वर ने सजग पाठक के रूप में जितना अध्ययन किया था, उस पठन की छाप उनके साहित्य में आना स्वाभाविक ही था। क्या इससे उनकी कही बातों का असर कम हो जाता है?
भारत यायावर भुवनेश्वर को ‘फ़क्रीरों में नवाब, गिरहकट, अघोरी’ कहकर याद करते हैं। भुवनेश्वर के बारे में लगभग सभी लेखकों और परिचितों ने यह कहा है, कि भुवनेश्वर ने उन्हें ठगा, पर इस ठगाई के लिए किसी ने उन्हें अपशब्द नहीं कहे।
भुवनेश्वर अपनी रचनाओं में झूठे आदर्श की ज़मीन को तोड़ देते और एक ऐसा समाज सामने लाते, जिसकी कोई नैतिकता नहीं, कोई आदर्श नहीं और अगर हैं भी तो केवल ऊपरी खोल की तरह। इसी युग में निराला अपने ढाँचे और खोल को स्वयं तोड़ते हैं और भाषा, शिल्प और कथ्य की नई बानगी रच देते हैं। भुवनेश्वर तो निराला को भी चुनौती देते हैं – राम विलास शर्मा जी ने ‘निराला की साहित्य साधना’ में इस प्रसंग का विस्तार से उल्लेख किया है, जिसे पढ़ा जाना चाहिए।
भुवनेश्वर के नाटकों को असंगत नाटक की पृष्ठभूमि का निर्माता माना गया, पर वास्तव में उनके नाटकों को विसंगत मात्र कह देना उनसे टकराने के साहस का अभाव ही है। सवाल यह होना चाहिए कि आखिर ऐसा क्या था, कि भुवनेश्वर विसंगति को ही कथ्य रूप में चुनने के लिए विवश हुए? भुवनेश्वर की किताब ‘कारवाँ’ की भूमिका और अंत में दी गई उनकी सूक्तियों का अध्ययन करना चाहिए, जिससे उनकी विसंगति को चयनित करने की दृष्टि का विश्लेषण किया जा सकता है -जैसे ‘संदेह बुद्धि के लिए एक विश्राम है’ या ‘भावुकता कलाकार के लिए विष है और हिन्दी नाटककारों का भोजन’ अथवा ‘विवेक और तर्क तीसरी श्रेणी के कलाकारों के चोर दरवाजे हैं’ ये सभी वाक्य विश्लेषण के लिए उपलब्ध हैं, जिसमें सीधे अर्थ न होकर व्यंजित अर्थ निहित हैं।
भुवनेश्वर अपने परिवार से दूर जिस समाज के बीच अपनी गति तलाश रहे थे, उसके खोखले आदर्शों से भी वे त्रस्त थे। गिरीश रस्तोगी उनके जीवन का उल्लेख विस्तार से करती हैं ... " शाहजहाँपुर के बाद उनका लखनऊ रुकना हुआ। आर्थिक थपेड़ों से वे बहुत दुबले हो गए थे। कहते हैं कि चारबाग स्टेशन पर ही बेंच पर रात गुज़ार देते थे। अब तक उनकी आदतें, जीवनशैली, शराब पीने की लत ऐसी बढ़ चुकी थी, कि पारिवारिक माहौल में वे रह नहीं पाते थे। १९५३-५४ में वे शमशेर बहादुर के यहाँ थे, रिश्तेदारों के आने पर वे प्राय: गायब हो जाते थे। "
शायद ऐसी ही एक रात, बनारस के घाटों पर भुवनेश्वर के जीवन के रंगमंच का पर्दा गिर गया। योग्यता और निस्सारता, क्षमता और क्रूरता का अद्भुत संगम थे भुवनेश्वर। क्या विडंबना है, कि जिस लेखक को अपने जीवन काल में रहने की ठीक जगह न मिली, उसके लिए आज ‘भुवनेश्वर प्रसाद शोध संस्थान’ स्थापित किया गया है, जो साहित्य, रंगमंच, कला और संस्कृति के सर्वेक्षण, अध्ययन और अनुसंधान के लिए प्रतिबद्ध है।
संदर्भ:
- भुवनेश्वर समग्र: दूधनाथ सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- कारवाँ तथा अन्य एकांकी: भुवनेश्वर, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- भुवनेश्वर: व्यक्तित्व एवं कृतित्व, राजकुमार शर्मा, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
- भुवनेश्वर: साहित्य निर्माता: गिरीश रस्तोगी, साहित्य अकादमी
- वसुधा पत्रिका, अंक १९५८
- पुरखों के कोठार: भारत यायावर, प्रेरणा पब्लिकेशन, भोपाल
- भुवनेश्वर: व्यक्तित्व और कृतित्व, संपादक: राजकुमार शर्मा, पृष्ठ :२
- भुवनेश्वर : साहित्य निर्माता, गिरीश रस्तोगी, पृष्ठ ६, १५
- भुवनेश्वर समग्र: दूधनाथ सिंह, ‘कारवाँ: प्रेमचंद, पृष्ठ ४१२-४१५
- पुरखों के कोठार, भारत यायावर, पृष्ठ १०९
लेखक परिचय
डॉ. हर्षबाला शर्मा, इन्द्रप्रस्थ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। अनुवाद, रंगमंच और भाषा विज्ञान विषय का विशेष रूप से अध्ययन-अध्यापन करती हैं। कहानियाँ और आलोचना लिखने में रुचि है।
एक महत्वपूर्ण प्रगतिशील लेखक भुवनेश्वर जी की साहित्यिक यात्रा को हर्षबाला जी ने बहुत बढ़िया से प्रस्तुत किया है। हर्षबाला जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteहर्षबाला जी, भुवनेश्वर जी से रूबरू कराने के लिए आपको धन्यवाद। उनकी साहित्यिक यात्रा पर सारगर्भित और भावपूर्ण आलेख पढ़कर मज़ा आ गया। बधाई आपको।
ReplyDeleteसरोज जी, दीपक जी आपका बहुत बहुत आभार। भुवनेश्वर पर किताब भी लगभग पूर्ण होने की प्रक्रिया में है।आप दोनों ने उत्साहवर्धन किया,दिल से आभारी हूँ।
ReplyDeleteहर्षबालाजी, आपका यह आलेख पढ़कर मैं भावविभोर हो गयी। किसी भी नई शुरूआत करने वाले के सामने चुनौतियाँ कम नहीं होतीं और हमारा निर्मम समाज उसे तोड़ने के हर प्रयत्न करता है। भुवनेश्वर प्रसाद जैसे विरले ही हैं जो विसंगतियों की परवाह किए बग़ैर चट्टान की तरह अपनी बात पर अडिग रहते हैं। अद्भुत लेखन के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteहर्षबाला जी, नमश्कार! धाराप्रवाही शैली में लिखा आप का आलेख बहुत भाया.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और रोचक लेख
ReplyDeleteसटीक शब्दों के साथ उत्तम प्रस्तुति
🙏🙏