हिन्दी साहित्य की मुकुटमणि साहित्यकार मृदुला सिन्हा का जन्म २७ नवम्बर १९४२ को बिहार राज्य में मुज़फ़्फ़रपुर जिले के छपरा गाँव में हुआ था। बाल्यकाल से ही मृदुलाजी अद्भुत प्रज्ञा एवं उद्भट व्यक्तित्व से संपन्न थी। उन्होंने मनोविज्ञान में एम०ए० करने के पश्चात् बी०एड० किया और मुज़फ़्फ़रपुर में ही एक कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में कार्यरत हुईं।
हिन्दी साहित्य संसार में मृदुलाजी का नाम बड़े सम्मानजनक रूप से लिया जाता है। अपने साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक योगदान के फलस्वरूप उन्होंने लोगों एवं पाठकों के बीच अपना एक अनन्य स्थान बनाया था। उनका लेखन समाजप्रेरक है, समकालीन विषयों को सम्बोधित करता है, मानवीय मूल्यों एवं स्त्री विमर्श से संबन्धित गंभीर चिंतन पर आधारित है, एवं सुव्यवस्थित विचारों से परिपूर्ण है। उनके पति डॉ॰ रामकृपाल सिन्हा जी ने साहित्यिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में सदैव पूर्ण रूप से उनको सहयोग दिया।
प्रगतिशील एवं समाज उद्धारक विचारों तथा प्रकांड प्रज्ञा से सुशोभित मृदुलाजी सदैव आधुनिकता की पैरोकार रहीं और वे भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को मानवता, सहृदयता तथा उदारता की भावभूमि पर प्रतिष्ठित करने में कार्यशील रहीं। इसका प्रमाण उनके वक्तव्य, लेखनी एवं साक्षात्कारों में स्पष्ट देखने को मिलता है। वहीं देश की विभिन्न लोक संस्कृतियों एवं परम्पराओं के बचाव एवं स्थापन के लिए साहित्य, समाज और राजनीति - तीनों स्तरों से सक्रिय रहीं। उनका साहित्य भारतीय सांस्कृतिक-बोध स्वाद से परिपूर्ण है। यही कारण है कि इस वक्त के स्त्री लेखन में जिन दो-चार लेखिकाओं में नैतिकता की प्रखरता दिखती है, उनमें मृदुलाजी शीर्ष पर दिखाई देती हैं।
मृदुलाजी ज़मीन से जुड़ी हुईं थीं और ज़मीन की ही बातें करती थीं। भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। मृदुलाजी मन, वचन और कर्म से ग्रामीण जीवन के प्रति समर्पित रहीं। उन्होंने भारतीय गाँवों, विशेषतः बिहार के गाँवों से जुड़कर साहित्यिक सृजन किया, जिसने उन्हें एक अलग और विशेष पहचान दिलाई। वे कहती थीं -“मैं लोकगीतों, लोकोक्तियों, लोक कहावतों में ही सोचती हूँ। मानव मन, उसकी विशेषताओं, हास-परिहास, संस्कार और व्यथा को समझने के लिए लोकसाहित्य के ही पन्ने पलटती हूँ।”
मृदुलाजी संवेदनशील व्यक्तित्व की धनी थीं और आजीवन सकारात्मक कार्यों से जुड़ी रहीं। उनकी लेखनी ने आसपास के जीवन की घटनाओं को सम्बोधित करके समाज का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित कराया। उनके पात्र उनके साहित्य तक ही सीमित न होकर यथार्थ एवं अभिव्यक्तिपूरक प्रतीत होते हैं। मृदुलाजी की पहचान हिन्दी लेखिका एवं संपादक के साथ राजनेता के रूप में भी रही है। उनके कुशल सम्पादन से “पाँचवा स्तम्भ” नामक सामाजिक पत्रिका निकलती थी जो आज भी उसी सक्रियता से कार्यरत है । उन्होंने समकालीन विषयों पर करीब ४६ पुस्तकें और उपन्यास लिखे हैं। विजयाराजे सिंधिया पर लिखी उनकी किताब ‘एक थी रानी ऐसी भी’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हुई, उस पर इसी नाम से फिल्म भी बनाई गयी थी। मृदुलाजी को साहित्यिक लेखन एवं अनन्य राजनीतिक सहयोग हेतु कई राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तरीय कार्यक्रमों, सरकारी कार्यक्रमों, एवं साहित्यिक परिचर्चाओं में पुरस्कृत किया गया था।
मृदुलाजी के लेखन में नारी को सदैव ऊँचा सोपान प्राप्त हुआ। उनके अनुसार नारी अपनी त्यागवृत्ति से परिवार को जोड़ कर रखती है, उसका ममत्व उसे सृजनात्मक बनाता है। नारी में अगर घर की दहलीज़ से राज गलियारों के ऊँचे पदों तक जाने की क़ाबिलियत है तो घर-परिवार के दायित्व को निभाना उसे बख़ूबी आता है। वह यह मानती थीं कि ममत्व भाव से धनी पुरुष भी आकाश के समान विशाल हो जाते हैं। उनकी रचनाओं में यह स्पष्ट दीखता है कि वे नारी और पुरुष की तुलना को अर्थहीन मानती थीं, उनके अनुसार दोनों का दर्जा विशेष और महत्वपूर्ण है। महिलाओं के बीच काम करते हुए उन्हें उनका गौरवमय इतिहास याद दिलाने के लिए, मिथकों से विशेष नारी पात्रों की कथाएँ लेकर उनको उन्होंने आत्मकथ्य शैली में लिखा है। ये कथाएँ सीता, सावित्री, मंदोदरी, एवं अहल्या पर लिखी गयी हैं। इन आत्मकथाओं को भारी लोकप्रियता प्राप्त हुई और ये कई भाषाओं में अनूदित हुईं हैं।
उनका मानना था कि परिवार से बड़ी कोई पाठशाला नहीं। बोध की प्राप्ति मनुष्य को जब होती है, तब वह अधिकांशतः परिवार के परिवेश में होता है और उसमें हो रही गतिविधियाँ उसके लिए जीवंत कार्यशालाएँ बन जाती हैं। उनकी रचनाएँ अक्सर उनके इन भावों को झलकाती हैं। उनका मानना था कि समाज में प्रत्येक को अपने कर्तव्य पूरी शालीनता के साथ निभाने चाहिएँ, यही समाज और संस्कृति के विकास का आधार है।
मृदुलाजी ने अपनी सभी भूमिकाओं को बखूबी निभाया, भले ही वह बेटी, छात्रा, प्रवक्ता, अध्यापिका, पत्नी, माँ, लेखिका, समाज सेविका, राजनीतिज्ञ अथवा प्रशासक की क्यों न रही हो। लेखिका होने के साथ-साथ मृदुलाजी भाजपा केंद्रीय कार्यसमिति की सदस्य रहीं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में उन्होंने केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड के अध्यक्ष पद जैसे अति महत्त्वपूर्ण पद को बखूबी संभाला था। विश्व हिन्दी सचिवालय मॉरिशस द्वारा आयोजित ११वें विश्व हिन्दी सम्मेलन की वे विशेष अतिथि थीं। उनकी उपस्थिति ने सम्मेलन एवं वहाँ उपस्थित सभी विद्वानों की गरिमा को बढ़ाया था।
उल्लेखनीय है कि मृदुला सिन्हा जी गोवा की पहली महिला राज्यपाल थीं। गोवा में राज्यपाल का कार्यभार संभालने के साथ-साथ उन्होंने अपने साहित्यिक लेखन से गोवावासियों का दिल जीत लिया था। उनके स्वागतपूर्ण व्यक्तित्त्व एवं प्रगतिशील विचारधारा के कारण अन्य भाषाओं के साहित्यकार एवं अध्येता भी उनके मार्गदर्शन के पात्र बनकर कृतार्थ हुए।
मृदुलाजी ने साहित्य के साथ सामाजिक और राजनीतिक जीवन में भी सक्रिय रहकर तीनों क्षेत्रों के बीच अद्भुत तारतम्य स्थापित किया था। वे कहती थीं - “साहित्य, राजनीति और सामजिक सरोकार एक ही व्यक्ति के जीवन में मिलता है। तीनों क्षेत्रों में कार्यरत व्यक्ति का लक्ष्य समाज का उत्थान ही है। दरअसल राजनैतिक कार्यकर्ता सर्वप्रथम सामजिक कार्यकर्ता होता है। वह साहित्यकार है तो और उत्तम।”
संवेदनशील मृदुला सिन्हा की विद्यार्थी जीवन से ही साहित्यिक गतिविधियों तथा सृजनात्मक लेखन के प्रति रुचि विकसित हो गई थी। भारतीय समाज की बदलती हुई परिस्थितियों में आम आदमी, विशेषतया महिलाओं की सामाजिक, राजनैतिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याएँ और संदर्भ उनके रचनात्मक लेखन के मुख्य सरोकार हैं। उनकी रचनाओं में ग्रामीण अंचल की मिट्टी की सोंधी महक विद्यमान है। उनकी गणना हिन्दी की प्रथम कतार की लेखिकाओं में होती है।
मृदुलाजी के साहित्य की नींव मानवतावाद पर टिकी हुई है। इनकी रचनाएँ सेवा, संवेदना, सहानुभूति, प्रेम, करुणा जैसी भावनाओं से ओतप्रोत हैं। उन्होंने मुख्य रूप से साहित्य की प्रमुख विधाओं जैसे उपन्यास, कहानी-लघुकथा, निबंध आदि में संदर्भानुकूल पात्रों के माध्यम से समकालीन समस्याओं एवं संघर्ष को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया जिसमें वे निस्संदेह हर प्रकार से सफल रहीं।
मृदुलाजी ७८ वर्ष की आयु में दिनांक १८ नवंबर २०२०, बुधवार को पञ्चतत्व में विलीन हो गईं। यह हिन्दी-साहित्यजगत हेतु अपूरणीय क्षति थी। उनके निधन पर देश एवं विदेश के साहित्यकारों, अभिनेताओं, राजनीति से संबंधित महानुभावों ने शोक प्रकट किया था। जीवन के अंतिम पलों तक वे साहित्यिक रूप से सक्रिय रहीं और कई परियोजनाओं को दिल में समाए हुए थीं। निःसन्देह मृदुलाजी आज भी अपने ओजस्वी व्यक्तित्त्व, प्रेरणापरख विचार एवं समाजप्रेरक साहित्य संसार के रूप में हमारे साथ हैं।
लेखक परिचय-
सुविद्य धारवाडकार
कुमार सुविद्य धारवाडकर संप्रति स्नातकोत्तर हिंदी विभाग पार्वतीबाई चौगुले कला एवं विज्ञान महाविद्यालय (स्वायत्त) मड़गाँव, गोवा, भारत (गोवा विश्वविद्यालय से संलग्न) में विद्यार्थी हैं। इनकी आकाशवाणी केंद्र पणजी, गोवा से समसामयिक विषयों पर नियमित रूप से वार्ताएँ प्रसारित होती है। अपने समीक्षात्मक लेख हेतु इन्हें के॰ बी॰ एस प्रकाशन नई दिल्ली एवं अखिल भारतीय साहित्य मंथन शोध संस्थान द्वारा “साहित्य मंथन शोध श्री सम्मान 2021” से अलंकृत किया गया है।
संपर्क: suvidhyahindi@gmail.com / +91 8806812929
सहलेखक एवं सम्पादक - प्रगति टिपणीस
प्रगति टिपणीस पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। इन्होंने अभियांत्रिकी में शिक्षा प्राप्त की है। यह रुसी भाषा से हिंदी और अंग्रेजी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पांच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार प्रसार का काम करती हैं।
सुविद्य जी एवं प्रगति जी बहुत अच्छा लेख तैयार किया है मृदुला जी पर। दोनों लेखकों को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteलोक संस्कृति को आधार बना कर लिखना, उत्तरोत्तर लोक से जुड़ते जाना ही है। एक बढ़िया और रुचिकर लेख के लिए सुविध और प्रगति को बधाई!
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