Tuesday, November 9, 2021

“ कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है...''- सुदामा पाण्डेय `धूमिल'


 सुदामा पाण्डेय `धूमिलको साठोत्तरी युग  में हिंदी  काव्य की समकालीन कविता धारा का शलाका पुरुष कहा जाए तो अनुचित नहीं  होगा। उन्होंने अपने बागी  तेवरों से उस काल की राजनीति व  समाजिक  आर्थिक विसंगतियों  को अपनी कविता में उकेरा। 

उनका जन्म नवंबर १९३६ को खेवली गाँव में  हुआ। उनके पिता शिवनायक पाण्डेय जी, जयशंकर प्रसाद जी के पिता सुँघनी साहू जी के यहाँ  मुनीम थे। धूमिल  मात्र ग्यारह वर्ष के थे, जब उनके पिता की मृत्यु हो गई और माता रजवन्ती देवी  तथा भाईयों सहित पूरे  परिवार की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई। बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह मूरत देवी से हुआ।


धूमिल की प्राथमिक शिक्षा भतसार में हुई। १९५० में हरहुआ के हाई स्कूल की परीक्षा पास कीलेकिन अर्थाभाव के कारण आगे की पढ़ाई नहीं हो पाई। आजीविका की तलाश उन्हें काशी से  कलकत्ता ले गई। १९५८ में आईटीआई वाराणसी से विद्युत  डिप्लोमा  लेकर वे विद्युत अनुदेशक बने।

 १९६८ में उनका तबादला  पुनः  वाराणसी में हो गया। तब तक धूमिल  कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो चकुे थे। उन दिनों वाराणसी साहित्य जगत का एक महत्वपूर्ण केंद्र  बनकर उभर रही थी।


 इस विषय में राहुल लिखते हैं..." उन दिनों अस्सी पर अक्सर साहित्यिक गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं,  जिनमें  नागानंद, डॉ. शिव प्रसाद सिंह, डॉ. त्रिभवुन सिंह, डॉ. शंभूनाथ सिंह, भगवतशरण उपाध्याय, केदारनाथ सिंह , धूमिल, मधुकर सिंह, राजशेखर, विश्वनाथ तिवारी, त्रिलोचन शास्त्री, विजय मोहन सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, डॉ. नामवर सिंह और अन्य वरिष्ठ साहित्यकार एकत्र होते थे।"

   

  धूमिल के कुल तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हुए।

 ' संसद  से सड़क तक ' (१९७२) , उनके निधन के पश्चात ' कल सुनना मुझे ' तथा ' सुदामा  पाण्डेय  का प्रजातंत्र ' प्रकाशित हुए। 

१९७५ में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें 'मुक्तिबोध पुरस्कार ' प्रदान किया तथा १९७९ में वे ' साहित्य अकादमी सम्मान से गौरवान्वित हुए। 

         धूमिल ने बाल्यकाल से ही लेखन आरंभ कर दिया था। पहली रचना के विषय में उन्हीं के एक लेख 'कविता पर एक वक्तव्य’' में लिखा है "मुझे याद है, बनारसी लाल के साथ बैठ  कर मैंने पहली रचना लिखी। हम दोनों सातवीं कक्षा के सहपाठी थे। वरुणा नदी का किनारा, सांझ का वक्त और कविता का विषय तय हुआ, कि जिस पत्थर पर बैठे  हैं वही हो। लिखी दो पंक्तियाँ भी याद हैं ...

पड़ा हुआ है वरुणा तट पर

एक बड़ा सा काला पत्थर।

धूमिल मंच पर भी गीत गाते थे। पहली कहानी 'फिर भी वह ज़िन्दा  है' साकी में जून  १९६० में प्रकाशित हुई थी। उन्होंने गोविंद और मोहन राज के साथ मिलकर 'विनियोग' नामक एक पत्रिका का प्रकाशन मई १९६३ में किया। हैदराबाद से निकलनेवाली  पत्रिका `कल्पना' के मई १९६३ अकं में 'सीमाओं का बोझ' कहानी  छपी। वीरेंद्र जैन के सनातन सूर्योदयी कविता आंदोलन पत्रिका 'भारती' में उनकी कुछ कविताएँ एवं लेख छपे। उन्होंने बिरहा, गीत, कहानी, लघुकथा, नाटक, निबंध और समीक्षा हर विधा में लिखा। बांग्ला कवि सुकान्त के कविता संकलन 'छाड़ पत्र' का हिंदी  में अनुवाद 'पार पत्र' उन्होंने कंचन कुमार के साथ मिलकर किया।

  

 काशीनाथ सिंह ने लिखा, ६८ मार्च तक धूमिल फिर बनारस आ गए।  'गाँव' ,'अकाल दर्शन', 'मोचीराम' , 'कुत्ता' , शहर, शाम और एक बूढ़ा  मैं' , 'जनतंत्र के सूर्योदय  में' ,'शांति पाठ', 'राजकमल चौधरी' , 'पटकथा', 'शहर में सूर्यास्त, 'भाषा की रात’  आदि कविताएँ छप चुकी  थीं  और उसे यह आभास था कि इन पत्रिकाओं के जिन अंकों में मेरी कविताएँ छपी हैं  वह संपादक और पाठकों के लिए उस पत्रिका के खास अंक हैं, यही नहीं ये  कविताएँ आलोचकों के लिए भी उस पत्रिका के आकर्षण का केंद्र हैं। उसने कविता को नया अर्थ, नई परिभाषा दी थी। 


धूमिल की कविता आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की  कविता है। देश का बंटवारा, उसके बाद १९६२  में चीन युद्ध, १९६५  और १९७१  में पाकिस्तान से युद्ध, भ्रष्टाचार एवं कुर्सी हथियाने की होड़, साम दाम दंड भेद हर पैंतरा आजमा कर चुनाव  जीतने की मनोवृति ने युवा  पीढ़ी में जो कुंठा निराशा-आक्रोश भरा वही धूमिल की कविता का मूल  स्वर है।


मीनाक्षी जोशी कहती हैं, "इन में आवेग, आक्रोश, अनुभवजन्य सोच एवं ऊर्जा पूर्ण अदम्य साहस था। इसीलिए राजनीतिक विचार हो या सामाजिक विसंगति हो सबको उन्होंने इस प्रकार रचा कि विद्रोह में पीड़ा के स्वर सुनाई  दें, क्रांति में करुणा प्रगट हो, विसंगति में क्षोभ दिखाई दे तथा जन एवं जनतंत्र में पूरे राष्ट्र की अस्मिता का भाव राग अभिव्यक्त हो।"

'हत्यारे' (दो) , ' संयुक्त  मोर्चा', 'निहत्थे आदमी से कहा', 'हरित क्रांति' (1 - 2) इसी प्रकार की कविताएँ हैं। 'रात्रि भाषा' भूखे पेट की वेदना चित्रित करती है तो 'शिविर नंबर 3' में वह चित्रित करते हैं कि  अनाचार शोषण और चापलूसी से हटकर सच को सच कहने का साहस कर सकें। मानवीय मूल्यों के विघटन की कविता है 'हत्यारे'  


      वाराणसी के उदय प्रताप कॉलेज के हिंदी  विभाग वह धूमिल शोध संस्थान  के संयुक्त  तत्वावधान में धूमिल की पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी  में बोलते हुए धूमिल के पुत्र  डॉ. रत्नशंकर पाण्डेय ने कहा, " धूमिल' की कविता वास्तव में अक्षर के बीच पड़े हुए आदमी की कविता है।" धूमिल का यत्र-तत्र बिखरा हुआ लेखन इनके कई वर्षों के तपस्यापूर्ण प्रयासों  से 'धूमिल समग्र' के रूप में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। धूमिल की डायरियाँ, पत्र तथा समीक्षाओं तथा अब तक की समस्त प्रकाशित एवं  अप्रकाशित रचनाओं को इसमें सम्मिलित किया गया है।


धूमिल ने जिस सच्चाई से अपने समकालीन सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिवेश को अपने काव्य में स्वर दिया,अपने व्यावहारिक व पारिवारिक जीवन में भी वे उतने ही स्पष्ट पारदर्शी और सरल थे। धूमिल के पुत्र डॉक्टर रत्नशंकर जी से जब इस विषय में लतिका बत्रा की टेलीफोन के माध्यम से बात हुई तो उन्होंंने अपने पिता के अनेक रोचक संस्मरण सुनाए। बातचीत के दौरान बताया कि धूमिल अपनी बेहद कठिन आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद अपने बीस-बाईस लोगों के संयुक्त  परिवार के प्रत्येक सदस्य के साथ समान व्यवहार करते थे।  


राजनीतिक व्यवस्था में व्याप्त जिस लूट-खसोट और भाई-भतीजावाद का विरोध वे अपनी तमाम रचनाओं में करते रहे; उस विचारधारा का परिपालन अपने निजी जीवन में भी करते थे। इस विषय में डॉक्टर रत्नशंकर जी ने एक अन्य संस्मरण  सुनाते  हुए बताया कि एक समय था जब खुले बाजार में उर्वरक उपलब्ध नहीं थे। धूमिल को अपने बारह एकड़ खेतों के लिये उर्वरक चाहिये था। उस समय उनके सहपाठी मित्र कैलाशनाथ सिंह निरहुआ इकाई के कॉपरेटिव  के अध्यक्ष थे। धूमिल ने सहज ही उनसे अपनी आवश्यकता की बात की। कैलाशनाथ सिंह  ने पाँच बोरी उर्वरक इनके लिये रखवा दिया। बहुत दिनों तक धूमिल उर्वरक लेने नहीं आये। जब उनसे मित्र ने इस बाबत पूछा  तो वह कुछ असमंजस और ग्लानि में बोले कि ये उर्वरक किसी और के हक का है। वह इसे लेकर अपने खेत में कैसे डालें जब कि अगल बगल के किसानों के पास भी उर्वरक नहीं  है।


डॉ रत्नशंकर जी ने संस्मरणों  का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए बताया कि अक्टूबर १९७४ को असहनीय सिर दर्द के कारण धूमिल को काशी विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलेज में भर्ती करवाया गया। उन्हें ब्रेन ट्यमूर था। नवबंर १९७४  को उन्हें लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में स्थानांतरित कर दिया गया। उनकी रूग्णता का समाचार रेडियो पर प्रसारित हुआ साथ ही अखबारों में भी छपा। १५  जनवरी १९७५  को उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्य  मंत्री हेमवती नदंन बहुगुणा  अधिकारियों सहित धूमिल से मिलने आये। उनके लेखक मित्र ठाकुरप्रसाद सिंह, जो उस समय सूचना  जनसम्पर्क में डायरेक्टर थे, भी उपस्थित थे। साथ ही श्री लाल शुक्ल, कुंवर नारायण तथा परिवार के अन्य लोग भी थे। मंत्री जी ने धूमिल से कहा कि हम सरकार की ओर से आप को इलाज के लिये विदेश भेजने की व्यवस्था करते हैं। इतने जटिल रोग से ग्रसित होने के बावजूद  धूमिल  ने यह सुविधा लेने से मना कर दिया।  जिन मूल्यों के लिये वे ताउम्र लड़ते रहे, मृत्यु शैया  पर भी उन्हें कोई प्रलोभन उस से डिगा नहीं सका। १०  फरवरी १९७५  को उन्होंने अंतिम साँस ली। धूमिल अपने निजी जीवन में इतने साधारण थे कि उनके देहावसान के पश्चात जब रेडियो पर इस सूचना  का प्रसारण हुआ तब उनके परिजनों को पता चला कि वह कितने बड़े कवि थे। कवि की जिजीविषा का प्रत्यक्ष प्रमाण ये रहा कि उन्होंने अपनी अंतिम  कविता १४  जनवरी १९७५  को असहनीय  कष्ट में रोग शैया  पर लेटे हुए लिखी, जिसमें उन की कलम की पैनी  धार लुंज- पुंज  व्यवस्था पर उसी तरह  से वार करती दिखाई देती है, जिसने  सुदामा पाण्डेय धूमिल को अपने युग के समकालीन कवियों से अलग एक दैदीप्तमान नक्षत्र बनाए रखा


शब्द किस तरह 

कविता बनते हैं 

इसे देखो 

अक्षरों के बीच गिरे हुए 

आदमी को पढ़ो 

क्या तुमने सुना कि यह 

लोहे की आवाज़ है या 

मिट्टी में गिरे हुए ख़ून 

का रंग 

लोहे का स्वाद 

लोहार से मत पूछो 

उस घोड़े से पूछो 

जिसके मुँह में लगाम है। 

सुदामा पाण्डेय `धूमिल' : जीवन परिचय

जन्म

९ नवंबर १९३६ 

निधन

१० फरवरी १९७५ 

जन्मभूमि

ग्राम खेवली (उ. प्र.)

पिता

शिवनायक पाण्डेय 

माता

रजवन्ती देवी

शिक्षा एवं शोध

डिप्लोमा

विद्युत  डिप्लोमा, आईटीआई वाराणसी

प्रकाशित कृतियाँ

१ ) संसद से सड़क तक (१९७२)


२ ) कल सुनना मुझे (निधन के पश्चात)


३ ) सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र (निधन के पश्चात)


पुरस्कार व सम्मान

  • मुक्तिबोध पुरस्कार (१९७५ ) मध्यप्रदेश सरकार 

  • साहित्य अकादमी सम्मान (१९७९ )



सन्दर्भ सूची :


१ ) राहुल -विपक्ष का कवि धूमिल -पृष्ठ १८१ 

२ ) धूमिल -कल सुनना मुझे -विष्णु खरे की भूमिका 

३ ) धूमकेतु धूमिल और साठोत्तरी कविता -मीनाक्षी जोशी -पृष्ठ -२८


लेखक परिचय


लतिका बत्रा

शिक्षा : एम .ए। एम फिल बौद्ध विद्या अध्धयन, दिल्ली विश्वविद्यालय। 

लेखक एंव कवियित्री, व्यंजन विशेषज्ञ, फूड स्टाईलिस्ट। 

प्रकाशित पुस्तकें : उपन्यास- तिलांजली

 काव्य संग्रह - दर्द के इन्द्र धनु

 शीघ्र प्रकाश्य - पुकारा है जिन्दगी को कई बार... dear cancer


5 comments:

  1. लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो जिसके मुँह में लगाम है!
    इन पंक्तियों को पढ़ के दिमाग़ के जो पेंच खुलते हैं, वही धूमिल की याद को धूमिल नहीं होने देते!
    पुख़्ता लेख लतिका जी! शुक्रिया 🙏🏻

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  2. कवि धूमिल पर यह लेख पढ़ना सुखद अनुभव है। इस रोचक लेख के लिए लतिका जी को हार्दिक बधाई।

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  3. कथनी और करनी में ताउम्र भेद न करने वाले धूमिल जी पर उम्दा लेख, लतिका जी। डॉ रत्नशंकर पाण्डेय जी द्वारा बताए गए संस्मरण धूमिल जी के अज्ञात पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं, धूमिल जी को उनकी जयंती पर नमन। लतिका जी, लेख के लिए बधाई और शुक्रिया।

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  4. धूमिल जी के जीवन एवं कृतित्व पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला है , लतिका जी । बधाई।

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  5. लतिका जी, धूमिल पर इतने शानदार आलेख के लिए बहुत-बहुत बधाई।

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