साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म दलित (चुहड़े) जाति के एक गरीब परिवार में हुआ। उनके परिवार की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति बेहद कष्टदायक थी। उनका बचपन एक ऐसे सामाजिक परिवेश में बीता जो दलितों के प्रति असंवेदनशील व क्रूर था। उनकी बस्ती में चारों तरफ गंदगी भरी होती थी। दुर्गंध ऐसी कि साँस घुट जाए - तंग गलियों में घूमते सुअर, भौंकते कुत्ते, रोज़मर्रा के घरेलु और पड़ोसियों के झगडे़ - ऐसे वातावरण में बीता था उनका बचपन। वर्ग-व्यवस्था को आदर्श कहने वालों को यदि इस माहौल में दो चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाए।
ओमप्रकाश अपने पांच भाईयों में सबसे छोटे थे| उनकी दो बहनें भी थीं| पिता का नाम छोटनलाल तथा माता का नाम मुकुन्दी देवी था| घर के सभी लोग कमाते थे फिर भी दो जून की रोटी जुटा पाना प्रतिदिन की चुनौती थी| अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में अपनी पारिवारिक स्थिति की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं, "बरसों-बरस चावल के मांड से बनी सब्ज़ी खाकर अपने जीवन के अँधेरे तहख़ानों से बाहर आने का संघर्ष किया है। मांड पी पीकर पेट फूल जाते थे, भूख मर जाती थी, यही उनके लिए स्वादिष्ट भोजन था, यही था दारुण जीवन जिसकी दग्धता में झुलसकर जिस्म का रंग बदल गया।"
गरीबी ने उनकी शिक्षा पर भी असर दिखाया था| किन्तु शिक्षा का महत्व समझते हुए उन्होंने अपने मामा के बेटे और बहू, जो देहरादून में रहते थे, के पास रहकर बाहरवीं पूरी की| आगे चलकर उन्होंने एम. ए. तक की पढ़ाई की और साहित्य को अपने जीवन का अटूट हिस्सा बना लिया|
प्रारंभिक जीवन के संघर्ष और जाति के नाम पर समाज से मिली प्रताड़ना और शोषण का वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में बड़ी मार्मिकता से प्रस्तुत किया है। उस अन्धकार से निकलकर समाज में अपने लिए सम्मान का मुकाम पाना सिर्फ़ ज्ञान के प्रकाश से ही संभव था, इसका जीता-जगता प्रमाण है पुरुषार्थ से लबरेज ओमप्रकाश वाल्मीकि की जीवनयात्रा।
२३ वर्ष की आयु में उनका विवाह चन्द्रकला (चन्दा) से हुआ। पत्नी से प्रेम का प्रमाण था उनका घर "चन्द्रायन”, जो उन्होंने अपनी पत्नी के नाम पर ही रखा था। हालाँकि उनकी पत्नी चंदा ‘वाल्मीकि’ जाति सूचक नाम को आत्मसात नहीं कर सकीं| उन्हें "खैरवाल" जाति नाम अधिक पसंद था।
जीवन संघर्ष: गरीबी से दुखी ओमप्रकाश के लिए ‘रोटी या पढ़ाई’ एक विकल्प बन चुका था। बड़ी परेशानी के बाद उन्होंने डी.ए.वी. इन्टर कॉलेज में दाखिला लिया, जहाँ सहपाठियों द्वारा उनके देहातीपन तथा फटे वस्त्रों का मज़ाक उड़ाया जाता था। घर की आर्थिक स्थिति विकट थी, अतः डी०ए०वी० इन्टर कॉलेज देहरादून में पढ़ाई के दौरान ही ओमप्रकाश ने आजीविका की तलाश शुरू कर दी थी। तकनीकी शिक्षा प्रशिक्षण के दौरान काफ़ी दिक्कतों को झेलते हुए भी वो प्रशिक्षण भत्ते में से कुछ पैसा बचाकर पिताजी को भेजते थे। संस्थान में जाति को लेकर उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन जातिगत संघर्ष उनके जीवन का हिस्सा बन चुका था| उनके साहित्य में दलित पीड़ा और संघर्ष की पूरी दास्तान बयां है|
साहित्यिक सफर: जबलपुर में रहते हुए ओमप्रकाश का परिचय मराठी के दलित साहित्य से हुआ। संयोगवश उनका चयन आर्डिनेंस फैक्ट्री, चन्द्रपुर (महाराष्ट्र) में हुआ| वहाँ इनका परिचय हिन्दी-उर्दू के कई कवियों, लेखकों, कथाकारों से हुआ। वाल्मीकि ने नवभारत, युगधर्म, नई दुनिया आदि पत्रों के माध्यम से एक कवि के रूप में पहचान बनाई। महाराष्ट्र में ही वाल्मीकि ने जब डॉ० आम्बेडकर के जीवन संघर्ष को समझा तो यहीं से प्रेरणा लेकर दलित लेखन से जुड़ गए। अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में इन्होंने स्वयं के संघर्ष की गाथा तो लिखा ही है, साथ-ही-साथ अभिजात्यता और प्रभुता की जड़ों को भी झकझोरा है। वाल्मीकि जी की आत्मकथा हिन्दी-दलित आत्म कथाओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई| इसकी लोकप्रियता को देखते हुए इसका अनुवाद सभी भारतीय भाषाओं जैसे पंजाबी, बंगाली, तेलुगु, गुजराती, उर्दू, मराठी, तमिल, उड़िया, मलयालम, कन्नड़ सहित अंग्रेज़ी, फ्रेंच, स्वीडिश आदि में भी हुआ। "जूठन" को अनेक विश्वविद्यालयों में दलित पाठ्यक्रम के अंतर्गत पढ़ाया जाता है। वाल्मीकि जी प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन, धूमिल, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव सरीखे हिन्दी के दिग्गज साहित्यकारों द्वारा दलितों तथा उनकी समस्याओं पर लेखन के लिए उनका आभार तो मानते हैं, मगर सवर्ण होने के नाते उनके दलित प्रेम पर संदेह भी व्यक्त करते हैं। साहित्यिक रचनाओं के अतिरिक्त वाल्मीकि जी ने लगभग – ६० नाटकों में अभिनय एवं लगभग ६० गोष्ठियों में भाग लिया।
वाल्मिकी जी से साक्षात्कार के अंश –
साहित्य में दलित विमर्श पर वह कहते हैं – “साहित्य में दलित विमर्श से सीधा-सीधा तात्पर्य दलित साहित्य आंदोलन और अंबेडकर विचारधारा से है। इसका सूत्रपात डॉ. अंबेडकर के आंदोलन से हुआ जो आज भी जारी है। यह विमर्श दलित मुक्ति से जुड़ा है।”
-डॉ. शगुफ्ता नियाज़ (१० जनवरी २००९, हिन्दी वांग्मय ब्लॉग)
दलित आंदोलन का दलितों के व्यापक धरातल पर प्रभाव के प्रश्न पर वाल्मीकि जी ने कहा – “जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दलितों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है, जिसकी प्रेरणा उन्हें दलित आंदोलन से ही मिली है और भविष्य में भी इसके सकारात्मक परिणाम दिखाई देंगे। आज दलितों में मुक्ति की छटपटाहट बढ़ी है, वे समाज में समता, बंधुता के लिए संघर्षरत हैं, और यह सब दलित आंदोलन से प्रेरित होकर हुआ है, इसमें दलित साहित्य ने सकारात्मक भूमिका निभाई है”।
-डॉ. शगुफ्ता नियाज़, (१० जनवरी २००९, हिन्दी वांग्मय ब्लॉग)
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का अंतिम साक्षात्कार हीरालाल राजस्थानी द्वारा लिया गया। इस साक्षात्कार में हीरालाल जी पूछते हैं, "जिस सफ़ाई के काम की वजह से ये छूत का दंश झेलना पड़ता है, क्या आप मानते हैं कि उस काम को छोड़ देना चाहिए? ओमप्रकाश वाल्मीकि का उत्तर था – “ओके मानता हूँ, छोड़ देना चाहिए, लेकिन उसका कुछ अल्टरनेट तो दो, उनको भूखे मरने के लिए छोड़ देना चाहिए, उनके पास करने के लिए दूसरा काम भी नहीं, काम देने का कार्य राज्य सरकार का है, सरकार उनके पुर्नवसन की व्यवस्था करे, अन्यथा तो वे भूखे मर जाऐगें।"
नरेन्द्र वाल्मीकि-लेख, दलित साहित्य के महानायक, ओमप्रकाश वाल्मीकि
दलित विमर्श के प्रमुख एवं महत्वपूर्ण लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि पर रोचक लेख बना है। रेखा जी को लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteरेखा जी , आपके आलेख की सबसे बड़ी खूबी यह है कि आपने उस घोर सांसारिक दरिद्रता को बड़ी शिद्दत से उकेरा है जिसकी कल्पना मात्र से हमें सिहरन का अनुभव होता है । वाल्मीकि जी का इस अवस्था से निकलना , पढ़ना- लिखना और साहित्यकार बन जाना अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । उत्तम लेखन पर बधाई ।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteयह आलेख पढ़ने के बाद ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कविताएँ पढ़ने की उत्सुकता को रोक नहीं सकी। कवितकोश में कुछ कविताएँ पढ़ीं। सोचती हूँ, 'कभी सोचा है?' 'विध्वंस बनकर खड़ी होगी नफ़रत' आदि आदि कविताएँ तो बार-बार पढ़ी जानी चाहिए।
ReplyDeleteरेखा जी, जातिवाद को लेखर वाल्मीकि जी के दुःख-दर्द और उससे मिली चेतना, दलित संघर्ष और विमर्श के बारे में उनके विचारों को बखूबी अपने आलेख में पेश किया है। आपको बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद।
ReplyDelete