वरिष्ठ साहित्यकार रवीन्द्र कालिया एक बेहतरीन कहानीकार, उम्दा उपन्यासकार, जीवंत संस्मरण लेखक थे, लेकिन उनकी खूबी सिर्फ उनकी लेखनी नहीं थी; बेमिसाल सम्पादक के रूप में रवीन्द्र कालिया की छवि पाठकों के मन-मस्तिष्क में आज भी अंकित है, और सर्वदा रहेगी। वह बाज़ार को समझते थे और साहित्य को बाज़ार तक पहुँचाने में माहिर थे। उन्हें ऐसे सम्पादक के रूप में जाना जाता था, जो पाठकों और बाज़ार की खासी परख रखता था। उनके सम्पादन में अनेक पत्रिकाओं के दिन बदले। उन्हें ऐसे सम्पादक के रूप में जाना जाता था, जो मृतप्राय पत्रिकाओं में भी जान फूँक देते थे। उनके व्यक्तित्व के सबसे महत्वपूर्ण पक्ष थे; उनकी निर्विकार उच्छल आत्मीयता, नम्रता, विद्वता, स्वाभिमान के साथ-साथ गम्भीरता, विनोद-वृत्ति और अनूठापन।
कालिया साठोत्तरी पीढ़ी के महत्वपूर्ण लेखक थे; लेकिन वह सिर्फ हिन्दी या देसी साहित्य की पैरोकारी नहीं करते थे। उनका मानना था कि विदेशी साहित्य में भी बहुत कुछ है। वह हिन्दी साहित्य को विश्व-साहित्य के साथ जोड़कर नया आयाम देना चाहते थे, इसका प्रमाण पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ का मई २०१५ अंक देखने पर मिलता है, जिसका फोकस अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लेकर म्यांमार तथा मालदीव जैसे पास-पड़ोस के देशों की कहानियों-कविताओं पर था। ११ नवम्बर १९३९ ई. को जालंधर में जन्मे रवीन्द्र कालिया की आरम्भिक शिक्षा उनके शहर जालंधर में ही हुई। बचपन से ही घर में पंजाबी व हिन्दी दोनों भाषाओं का ज्ञान मिला, इसलिए दोनों भाषाओं में उनकी रुचि समान रही। उन्हें बचपन से ही पत्र-पत्रिकाओं में संकलित कहानी व अन्य लेखों का अध्ययन करने की रुचि रही। ‘हिन्दी मिलाप’ पत्रिका के उप-सम्पादक संतराम सोनी ने रवीन्द्र को बचपन से ही प्रोत्साहित किया, जिसके कारण वह स्कूल के दिनों से ही लेखन कार्य में जुट गए। स्कूल के दिनों में रवीन्द्र कालिया की रचनाएँ ‘शिशु संसार’ पत्रिका में छपा करती थीं। सोनी जी ने उनके लेखन कार्य में काफी सुधार किया। इसके पश्चात भाटिया जी ने ‘हिन्दी मिलाप’ पत्रिका में रवीन्द्र जी की रचनाएँ प्रकाशित करनी शुरू की। १९५५ ई. में डीएवी कॉलेज में उनका प्रवेश हुआ, जहाँ उनकी मुलाकात मोहन राकेश से हुई, जो उसी कॉलेज में प्राध्यापक थे। राकेश जी की सलाह पर उन्होंने बीए (ऑनर्स) हिन्दी लिया और हिन्दी ऑनर्स प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके पश्चात उन्होंने वहीं से हिन्दी में स्नातकोत्तर किया। एम.ए. की परीक्षा समाप्त होते ही वे दैनिक ‘हिन्दी मिलाप’ के सम्पादकीय विभाग से जुड़ गए, जहाँ उनका कार्य अनुवाद करना था। इसके पश्चात वे हिसार के डीएवी कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी करने लगे। इसके बाद उन्होंने मुंबई में ‘धर्मयुग’ पत्रिका में कार्य किया, जहाँ उन्हें काफी अनुभव प्राप्त हुआ और साहित्य के प्रति उनका लगाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता चला गया।
११ नवम्बर १९६४ को रवीन्द्र कालिया जी का विवाह ममता अग्रवाल जी से हुआ। दोनों की जोड़ी अद्भुत सामंजस्य में रही। ममता जी को उनकी हँसी, स्मार्टनेस, बेतकल्लुफ दोस्ती और जीने का मलंग अंदाज बहुत अच्छा लगता था। ममता जी के शब्दों में- “वह खरा इंसान था, दोस्तों का दोस्त, प्रेमियों का प्रेमी... अनोखा चितेरा।”
‘हिन्दी-मिलाप’, ‘भाषा’, ‘त्रैमासिक’,‘धर्मयुग’, ‘गंगा-यमुना’ एवं ‘वागर्थ’ पत्रिकाओं के कार्यक्षेत्र ने उनके विचारों व अनुभवों को एक सशक्त मंच प्रदान किया, जिसके कारण उनका कर्मठ व्यक्तित्व मानव की सृजनशीलता और उसके आशावान विकास की दिशा में आस्थावान बनता चला गया।
‘धर्मयुग’ पत्रिका में रवीन्द्र कालिया के कलेवर का योगदान स्पष्ट रूप से देखने को मिला। यही वह दौर था, जब कालिया जी ने ‘काला रजिस्टर’ लिखा था; फिर ‘धर्मयुग’ पत्रिका के सम्पादक धर्मवीर भारती से अन-बन होने के कारण कालिया इलाहाबाद चले गए और वहीं पर ‘गंगा-यमुना’ पत्रिका निकालकर साहित्य-जगत में एक बार फिर धूम मचा दी। यही नहीं उन्होंने भारतीय भाषा परिषद की दम तोड़ती पत्रिका को भी न केवल खड़ा किया, बल्कि साहित्य की मुख्यधारा में लाकर उसे एक अहम पत्रिका बना दिया। ‘वागर्थ’ पत्रिका को मुख्यधारा से जोड़ने के पश्चात ‘नया ज्ञानोदय’ के सम्पादक का दायित्व संभालते हुए उसे हिन्दी साहित्य की अनिवार्य पत्रिका बना दिया।
हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने अपनी अलग पहचान बनायी और युवा प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए भी उन्हें खूब जाना जाता रहा। पत्रकार व स्त्रीवादी लेखिका गीता श्री के अनुसार- “रवीन्द्र कालिया हमारे समय के ऐसी शख्सियत थे, जो प्रतिभाओं को खोजते, माँजते, सँवारते और उन्हें स्थापित कर देते थे। समकालीन दौर के कई प्रतिभाशाली कथाकार उनकी खोज हैं। वे न सिर्फ प्रतिभाओं को अच्छी तरह से पहचानते थे, बल्कि उनके साथ खड़े भी होते थे।”
इलाहाबाद में स्थायी रूप से बसने के साथ ही रवीन्द्र कालिया ने स्वतंत्र व्यवसाय, पत्रकारिता और साहित्य लेखन के क्षेत्र चुन लिए थे। उन्होंने प्रेस-व्यवस्था, लेखन क्षेत्र में २५ वर्ष तक लगातार कठिन परिश्रम किया। इलाहाबाद की रानी-मंडी क्षेत्र में स्थित दो संस्कृतियों के मिलन और वैमनस्य के कारणों को कालिया ने बहुत करीब से महसूस किया और साम्प्रदायिकता की ज्वाला से जलते हुए भारतीय समाज की विसंगतियों का चित्रण करने के लिए ‘खुदा सही सलामत है’ जैसे उपन्यास की रचना की।
दूधनाथ सिंह जी के अनुसार- “कालिया ने प्रेस का काम देखते हुए भी वहाँ कहानियों की झड़ी लगा दी। एक के बाद एक उनके संग्रह आते रहे।”‘खुदा सही सलामत है’ के बाद दो भागों में लिखा उपन्यास अतरसुइया, अहियापुर, शमदाबाद वाली गली, रोशनबाग यानी कोतवाली के इर्द-गिर्द के मुख्य शहर के इलाकों का एक खूबसूरत दस्तावेज़ी उपन्यास है। उनके पास एक अजब-सी हल्की-फुल्की व्यंग्यात्मक और हास्य से भरी हुई गद्य शैली थी। पंजाब से लेकर दिल्ली, मुम्बई और इलाहाबाद में बोली जाने वाली हिन्दी भाषा का जो तर्ज़े-बयाँ है, उसका सबसे खूबसूरत उदाहरण कालिया जी की कथाभाषा है। रवीन्द्र कालिया जी ने अपनी रचनाओं में व्यक्ति के जीवन में उत्पन्न होने वाली विसंगतियों को सफल और सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान की है।
कुछ समय बीमार रहने के बाद ९ जनवरी २०१६ को उनका निधन हो गया। उनके निधन के पश्चात दूधनाथ सिंह ने अपने संस्मरण में लिखा- “दोस्तों के बीच उसकी जुबाँ से जैसे फूल झड़ते थे। हँसी-मजाक और व्यंग्य के वे पुरजोर कह-कहे अब दुबारा पढ़ने-सुनने को नहीं मिलेंगे। उसने और भी विधाओं में काम किया। उसने साथी कथाकारों पर ‘सृजन के सहयात्री’ नाम से संस्मरण की एक प्रसिद्ध किताब लिखी। कमाल है कि जिनसे झगड़ा था, उनके प्रति भी किसी संस्मरण में कोई कटुता नहीं है। आज रवीन्द्र कालिया भले न हों, उनकी कहानियाँ, उनके संस्मरण आज भी हमारे बीच हैं, जिन्हें हम हमेशा पढ़ते रहेंगे और इस तरह वे अपने पाठकों की स्मृतियों में हमेशा जिन्दा रहेंगे।”
संदर्भ –
- रवींद्र कालिया के कथा साहित्य में चित्रित समाज– देवी शौकीना https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/208053
- https://www.aajtak.in/literature/story/remembering-ravindra-kalia-357744-2016-01-09
- https://www.amarujala.com/kavya/mud-mud-ke-dekhta-hu/famous-memoirs-related-to-noted-hindi-author-ravindra-kalia?page=3
- अंदाज़े बयां उर्फ रवि कथा - ममता कालिया, वाणी प्रकाशन, २०२०
- https://www.jagran.com/uttar-pradesh/ghaziabad-13423069.html
भावना सक्सैना दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी व हिन्दी में स्नातकोत्तर व स्वर्ण पदक प्राप्त हैं।
२८ वर्ष से अधिक का शिक्षण, अनुवाद और लेखन का अनुभव है। तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें एक पुस्तक ‘सूरीनाम में हिन्दुस्तानी’ दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में संलग्न है। एक कहानी संग्रह ‘नीली तितली’ व एक हाइकु संग्रह ‘काँच-सा मन’ है। कई पुस्तकों का सम्पादन भी किया है व अनेक संस्थाओं से सम्मानित हैं।
नवम्बर २००८ से जून २०१२ तक भारत के राजदूतावास, पारामारिबो, सूरीनाम में अताशे पद पर रहकर हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया।
सम्प्रति- भारत सरकार के राजभाषा विभाग में कार्यरत हैं।
ईमेल –bhawnasaxena@hotmail.com
अप्रतिम लेख
ReplyDeleteबहुत ही रोचक लेख बना है। भावना जी को सुंदर लेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteभावना जी, रवीन्द्र कालिया पर प्रवाहमय, जानकारी वर्धक आलेख के लिए आपको बधाई।
ReplyDeleteरविंद्र कालिया जी बारे में सटीक, सार्थक और दिलचस्प जानकारी को धाराप्रवाह अंदाज़ में प्रस्तुत करने के लिए बहुत बधाई और शुक्रिया, भावना जी।
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