Sunday, November 21, 2021

ज़िंदगी @ ८५ बनाम ज्ञानरंजन

 gyanranjan



कहते हैं, कि किसी को जानना हो तो उसे समग्रता में पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए,टुकड़ों में नहीं। लेकिन यदि बात कथाकार, संपादक, गद्यकार, , पत्रकार और प्रोफ़ेसर ज्ञानरंजन की हो तो शायद यह कथन बिलकुल ग़लत सिद्ध हो जायेगा। क्योंकि इस आत्मीय चेहरे को कई पीढ़ियों ने अपने बेहद करीब पाया है। कभी-कभी तो लगता है, ज्ञानरंजन जनप्रियता की जिस चाशनी में पगे हैं वो शायद किसी-किसी के नसीब में ही लिखी होती है। अपनी धुन में रहने वाले, बेबाक बोलने वाले, एकदम अल्हदा सी भाषा शैली, विशेषण बिलकुल अनसुने से, बिंब और प्रतीक ऐसे जिन्हें बार-बार उद्धरित और व्याख्यायित करने में आनंद आए। पत्थर की लकीर जैसा सच लगे। वहीँ, उदाहरणों में उनके गहन अध्ययन, चिंतन और शोध की बानगी, यही सब बातें साधारण से चेहरे को ज्ञानरंजन में बदल देतीं हैं ।

आज ज्ञानरंजन जबलपुर के पर्याय बन गए हैं, संघर्ष के अनुभवों से उपजा ज्ञान, और सौम्य स्मित, जी हाँ, उनकी झिड़की सुनने के लिए भी लोग उनके करीब जाना चाहते हैं। पिछली सदी के ६० के दशक की जिन कहानियों ने उनको पहचान दी, वे अब लगभग ६० वर्ष पुरानी हो चुकी हैं पर उनकी कथावस्तु और ज्ञानरंजन की अंतर्दृष्टि शोधकार्य से जुड़े शोधार्थियों के लिए आज भी प्रेरणा का कार्य करती है। बचपन के मितभाषी और अनमने से, युवा अवस्था के विद्रोही कॉमरेड, प्रेरक, पाश्चात्य कवियों की रचनात्मकता से अनुप्राणित और उद्वेलित, जीवन के तीसरे कालखंड में युवा छात्रों के एकेडेमिक आइकॉन। और अब चौथेपन में ज्ञानरंजन शहर जबलपुर के साहित्यिक सृजनात्मकता के श्रेष्ठ दिग्दर्शक की भूमिका में गैर सार्वजनिक मंचों पर अक्सर दिखाई पड़ जाते हैं।

ज्ञानरंजन की सृजनशीलता को पाँच खाँचों में बाँटकर ही सही परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित किया जा सकता है। पहला और सर्वोपरि उनका अद्भुत और विशिष्ट गद्यकार होना है। उनका लिखा लेख वाकशैली को अलंकृत करता है, वे जो कुछ भी लिखते हैं, जिस किसी पर भी लिखते हैं, दो टूक लिखते हैं। फिर वो चाहे "अमरूद का पेड़" हो, या आत्मप्रवंचनाओं से भरा "कबाड़खाना"। वे कभी भी बिंबों या प्रतीकों का या कहे गए शब्दों का दोहराव नहीं करते हैं। काश वे अपने गद्यकार के श्रेष्ठ रूप को कागज़ पर उकेरते, तो हम उनकी कीमती शब्द संपदाओं से और भी समृद्ध और अभिभूत होते।

अब बात कथाकार के रूप की। अमूमन ज्ञानरंजन को कथाकार ज्ञानरंजन के रूप में ज़्यादा आँका, परखा और देखा गया है। ” सिर्फ कुछ कहानियाँ!” कहकर उन पर तंज भी कसे गए तो प्रतिनिधि लेखक का तमगा और दर्जा भी दिया गया। कभी-कभी तो लगता है जैसे ये कहानियाँ विचारों के अनगढ़ प्रवाह में अचानक लिख गई हों, तो कभी ये सार्थक और सोची समझी साज़िश का नतीज़ा लगती हैं। कुछ भी हो, उनके अनगढ़ का सौंदर्य बोध भी अलग सा है तो वहीं अवचेतन की सच्चाइयों का पर्दाफाश करने की साजिश भी चौंकाती और स्तब्ध करती है।

आइए, अब हिंदी गद्य की श्रेष्ठ और शैलीगत विशेषताओं की पत्रिका "पहल" और “पहल” के संपादन और संकलन वाले ज्ञानरंजन को समझने की कोशिश की जाए। किस बैचेनी ने "पहल" के सृजन की पहल की होगी, ये तो हम नहीं जानते। "सोवियतलैंड" जैसी पत्र-पत्रिकाओं के प्रचार-प्रसार के बीच संपादन की उनकी किस जिजीविषा ने हमारे समय को "पहल" के माध्यम से एक नई दृष्टि दी, डिज़िटल मोड़ पर खड़ी इस आभासी दुनिया से पहले "पहल" के प्रकाशन के संकटों से जूझना ज्ञानरंजन का प्रिय शगल रहा है। तभी तो अंतर्राष्ट्रीय श्रेष्ठ और कालजयी प्रस्तुतियों का संपादन रुकने के बाद भी कभी रुका नहीं, सैंकड़ों युवाओं ने इस "पहल" से अपनी सोच और लेखन को यू टर्न दिया है।

पत्रकार ज्ञानरंजन, एक अनछुआ सा पहलू है ज्ञानरंजन का। पीत पत्रकारिता के दौर में ज्ञानरंजन ने अपने कॉलम से श्रेष्ठ पत्रकारिता के नए आयाम स्थापित किए, ये बहुत कम लोग जानते हैं। उनकी अंतर्दृष्टि और बेहद रुचिकर और लुभावना लेखन, उनके थोड़े से समय का पत्रकार होना, तत्कालीन नवलेखन को प्रभावित कर गया। कंधे पर झोला लटकाए, शहीद स्मारक से बाहर निकलते ज्ञानरंजन आज भी विस्मृत नहीं हुए हैं। यदि ब्लॉग राइटिंग के इस दौर में ज्ञानरंजन ब्लॉगर बन जाएँ तो नव पीढ़ी का पाठक वर्ग उनके विज़न से चमत्कृत हुए बिना नहीं रहेगा।

ज्ञानरंजन को रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय ने डी. लिट् की मानद उपाधि से विभूषित किया है। सोवियतलैंड नेहरू सम्मान, सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान, और मध्य प्रदेश शासन का मैथिलीशरण सम्मान, उनके खाते में दर्ज़ है, पर "प्रोफ़ेसर ज्ञानरंजन" का संबोधन उनके प्रति एक चिर-परिचित संबोधन है। सेवानिवृत्ति से पहले हिंदी के व्याख्याता से ज़्यादा वे हिंदी के प्रयोगधर्मी ओरेटर लगते थे। उनकी छवि पेशेवर व्याख्याता की नहीं थी, पर फिर भी उनके स्व-स्फूर्त हिंदी विषयगत व्याख्यान छात्र बड़ी शिद्दत से सुनते थे। बेलौस, बेतकल्लुफ़ और उनकी आत्मीय चर्चाएँ छात्र समूहों के केंद्र में सदा बनी रहीं। पिता रामनाथ "सुमन" देश के प्रसिद्ध अनुवादकों में से थे, ज्ञानरंजन को शब्द संस्कार उन्हीं से मिले थे, पर व्याख्या और विस्तार उनका अपना हासिल था।

आज ज्ञानरंजन का जीवन ८५ साल का सफ़र पूरा कर चुका है। कहानियों से हिंदी के व्याख्याता, फिर पत्रकारिता, संस्मरण लेखन और हिंदी की सर्वाधिक समृद्ध लेखन और चयन की पत्रिका "पहल" का संपादन उनकी अकूत सम्पत्ति है जो पीढ़ी दर पीढ़ी उनसे प्रस्फुटित होने वाले प्रकाश से आलोकित होती रहेगी।

ज्ञानरंजन की कहानियाँ सामाजिक जीवन की त्रासदी बयां करती हैं, तो वहीं पारिवारिक जीवन की विसंगतियों की व्याख्या भी करती हैं। ज्ञानरंजन एक सीधी व सपाट सोच रखने वाले व्यक्तित्व हैं, उनकी सोच और लेखन में कोई दिक् भ्रम नहीं है, विरोधाभास नहीं है। वे जैसा सोचते हैं, वैसा लिखते हैं, जैसा लिखते हैं, वैसा ही बोलते हैं। ये आज के समय में बहुत विपरीत माना जा सकता है, पर ज्ञानरंजन ऐसे ही हैं। ज्ञानरंजन नॉस्टेल्जिक नहीं हैं, अतीतजीवी भी नहीं हैं, पर अतीत में विश्वास रखते हैं। अपने यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ वे जीवन के अंतरंग संबंधों से लेकर सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक ताने- बाने में प्रगतिशीलता के पक्षधर थे, वो भी पिछली सदी के ६० के दशक में, तब ये सोच अद्भुत और चकित कर देने वाली थी।

भले ही ज्ञानरंजन का संघर्ष मार्क्सवाद और साम्यवाद से अनुप्राणित था, लेकिन समय के साथ समाजवादी दर्शन ने उनके जीवन और व्यक्तित्व में व्यापक परिवर्तन किया और ज्ञानरंजन लेखक से ज़्यादा लोकप्रिय प्रेरक चरित्र में बदल गए। ६० का दशक ही ज्ञानरंजन के कथा संसार की इब्दिता भी बना और इंतेहा भी। आज हिंदी साहित्य की एक समृद्ध परंपरा ने नवलेखन की डिज़िटल ज़मीन से जुड़े नवोदित लेखकों की एक पूरी पीढ़ी हमारे सामने खड़ी कर दी है। हिंदी और अंग्रेजी लेखन के युवा पाठकों की इस डिज़िटल पीढ़ी के लिए ज्ञानरंजन की तलाश मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं।

आज ज्ञानरंजन जबलपुर के गौरवशाली साहित्यिक लेखन की जीवित अंतिम कड़ी माने जा सकते हैं, उनका होना शहर के लिए संगमरमर के जैसा है जिसमे पहचान भी है, स्निग्धता भी है और जो अपने आप में चमक पैदा करने की ताकत भी संजोए हुए है। उनका होना सूचना क्रांति के इस दौर में मानवीय क्षमताओं का परिचायक है। उनकी कहानियों के शब्द चित्रों में तब्दील होते रहे हैं और ध्यान से पढ़ने वाला आत्मसात होकर अपने सच से जुड़ जाता है। उनके लेखन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, बहुत कुछ कहा जा चुका है, बहुत कुछ सुना जा चुका है। दूसरों ने कहा, दूसरों से सुना, और दूसरों ने लिखा, पर ज्ञानरंजन जी से मिलना और उन्हें सुनना ही उनके बारे में बेहतर बयानी कर सकता है, पर वर्चुअल नहीं,एक व्यक्तिगत मुलाकात।

ज्ञानरंजन : जीवन परिचय

जन्म

जन्म : २१ नवंबर, १९३६,अकोला,महाराष्ट्र 

कर्मभूमि

जबलपुर,मध्यप्रदेश 

शिक्षा एवं शोध

उच्च शिक्षा

इलाहाबाद,उत्तर प्रदेश 

साहित्यिक रचनाएँ 

कहानी संग्रह



संपादन



संस्मरण, व्याख्यान, संपादकीय, रचनात्मक निबंध, साक्षात्कार, अखबारी टिप्पणियाँ,उपन्यास –अंश तथा पत्रादि के संकलन

सपना नहीं,फेंस के इधर और उधर, क्षणजीवी,तारामंडल के नीचे एक आवारागर्द 


पहल (त्रैमासिक पत्रिका), 

मेरी प्रिय संपादित कहानियाँ 


कबाड़खाना 

तथा 

उपस्थिति का अर्थ

पुरस्कार व सम्मान

सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का 'साहित्य भूषण सम्मान'

अनिल कुमार और सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार

मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग का 'शिखर सम्मान'

 

सुदीर्घ कथा साधना, सृजनशीलता और बहुआयामी कार्यनिष्ठा के लिए वर्ष २००१-२००२ के राष्ट्रीय 'मैथिलीशरण गुप्त सम्मान' से सम्मानित।

  

 लेखक रविकांत वर्मा, ज्ञानरंजन जी के निकट संबंधी हैं। वे आकाशवाणी जबलपुर से सेवानिवृत्त हैं तथा वर्तमान में जबलपुर में निवास करते हैं।

7 comments:

  1. ‘पहल’ के लोकप्रिय संपादक ज्ञानरंजन जी को आज रविकान्त वर्मा जी की नज़र से देखा। आलेख पढ़ कर लगा कि इनकी कलम आबाद रहे, लिखती रहे सदा! इतना दिल से लिखा हुआ आलेख!
    साथ में हम धन्यवाद देना चाहते हैं अमित खरे जी का, जिनके प्रयासों से यह संभव हुआ!

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  2. संक्षिप्त और उत्कृष्ट 🙏

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  3. ज्ञानरंजन जी के व्यक्तित्व के विविध आयामों को इस आलेख में बहुत खूबसूरती से समेटा है | रवि कान्त वर्मा जी को इस के लिए बहुत बहुत साधुवाद | बहुत मन से और ईमानदारी से लिखा गया लेख है ये | आदरणीय ज्ञान रंजन जी को जन्मदिन की बहुत बहुत शुभ कामनाएं |
    जीवेम शरद: शतम

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  4. प्रबुद्ध साहित्यकार ज्ञानरंजन जी पर यह जानकारी पूर्ण लेख बहुत ही सुंदर बना है। रविकांत जी को हार्दिक बधाई

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  5. दिल से लिखा हुआ विवरण है । काफ़ी जानकारी प्राप्त हुई । बधाई , रविकांत जी, अमित जी ।

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  6. अप्रतिम लेख। ज्ञानरंजन जी के प्रति लेखक का आकर्षण शब्दों से साफ़ झांक रहा है, और क्यों न हो, लेखक को इतने आत्मीय और प्रतिभाशाली व्यक्ति को क़रीब से जानने का मौक़ा जो मिला है। रविकांत जी और अमित जी, बहुत, बहुत बधाई और धन्यवाद। ज्ञानरंजन जी को जन्मदिन की बधाई और शुभकामनाएँ ।

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  7. कमाल लिखा है, रविकांत वर्मा जी, बहुत बधाई। "उनका होना शहर के लिए संगमरमर के जैसा है जिसमे पहचान भी है, स्निग्धता भी है और जो अपने आप में चमक पैदा करने की ताकत भी संजोए हुए है।" बहुत सुंदर

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