Saturday, November 20, 2021

इश्क़ और इन्क़िलाब को साधता शायर - फै़ज़

 

बीसवीं शताब्दी अपने शुरूआती दिनों में दुनिया की नब्ज़ पर हाथ रखकर उसकी धड़कनें समझने की कोशिश में लगी थी। इसी शताब्दी के दूसरे दशक के पहले साल, १९११ में, अदब की दुनिया में २ बड़े मोजिज़ा की आमद हुई। अविभाजित भारत के पूर्वी हिस्से में बाकमाल शायर मजाज़ १९ ऑक्टूबर १९११ को इस दुनिया में पधारे, वहीं भारत के पश्चिमी हिस्से में इसी साल एक और बच्चा पैदा होता है। उसके पिता सुलतान मोहम्मद ख़ान मशहूर वक़ील थे और अदबी दुनिया से गहरा रिश्ता रखते थे। घर का माहौल ऐसा हो तो बच्चे का लेखक या शायर होना लाज़िमी था। यह बच्चा मदरसा, स्कॉच मिशन स्कूल, मर्रे कॉलेज, सिआलकोट, जैसे मुख़्तलिफ़ शिक्षा संस्थानों से अदब और इल्म को हासिल करता हुआ गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर पहुँचता है। अपने कॉलेज में पतरस बुख़ारी, एम.एन.रॉय जैसे बुद्धिजीवियों से मिलकर यह नौजवान एक ऐसी शख़्सियत बनने की राह पर निकल पड़ता है जिसे दुनिया बाद में फै़ज़ अहमद ‘फै़ज़’ के नाम से जानने लगती है।

नौजवान फ़ैज़ कम्युनिस्ट विचारधारा से बेहद मुतासिर हो चुके थे, उनके लफ्ज़ों, लहजों और ख़्यालात में वामपंथी विचारधारा बहने लगी थी। १९४१ में, जब से वे अपनी बाज़ुओं में इन्क़िलाब की ताक़त भर रहे थे, गले में लाल स्कार्फ़ बाँधे ज़माने को बदलने की क़वाइद कर रहे थे, उनकी ब्रिटिश नेशनल और यूनाइटेड किंगडम की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्या एलिस से आँखे चार हो गईं। इन दोनों का एक जैसे ख़्यालात और खूबसूरत शख़्सियत रखना, एक दूसरे को मुतासिर करने के लिए काफ़ी था। जल्दी ही एलिस, एलिस फै़ज़ हो गई। फै़ज़, जो मोहम्मद एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज, अमृतसर में अंग्रेज़ी और ब्रिटिश लिटरेचर पढ़ा रहे थे, अपनी क़लम से उर्दू, पंजाबी और फ़ारसी ज़बान में मोजिज़ा करने लगे। इसी बीच फै़ज़ की मुलाक़ात मशहूर लेखक और मार्क्सिस्ट सज्जाद ज़हीर से हुई। जल्द ही फै़ज़ अहमद ‘फै़ज़’ प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट का हिस्सा हो गए। १९४१ में फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ की पहली साहित्यिक किताब ‘नक़्शे फ़रियादी’ छप कर आई जो कुछ दिनों में ही साहित्यिक क्षेत्र में अच्छी पैठ बनाने में कामयाब रही। फै़ज़ कमाल के शायर थे और उनकी शायरी में इश्क़, बदलाव, एहसास, सुकून, ठहराव सब कुछ बहुत स्वाभाविक रूप से मौजूद था। फै़ज़ ने सरकार और व्यवस्था के ख़िलाफ़ भी ख़ूब लिखा और किशोर की प्रेम में पगती हुई भावनाओं को अपने लफ़्ज़ों की मद्धम आँच में पका कर भी लिखा। अपनी निर्भीक और सरकार विरोधी रचनाओं की वजह से वे सालों तक जेल में भी रहे लेकिन अपनी ईमानदार रचनाधर्मिता के आवेग को उन्होंने कभी कम नहीं होने दिया। पाकिस्तान की सरकार ने अक्सर उन्हें इस्लाम विरोधी कहकर यातनाएँ दीं, लेकिन फ़ैज़ इश्क़, खु़दा और बदलाव की चाहत को एक तराज़ू में ही रखते रहे। उनके कुछ शेर और ग़ज़लें भारत और पाकिस्तान के बीच की लकीरों को तोड़कर दोनों देशों की फ़िज़ाओं में सालों से गूंजती रही हैं-  

"और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा।  

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा”।   

एक शेर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अत्यंत लोकप्रिय रहा है और लोग अक्सर अपनी बातों में इस शेर का उद्धरण करते हैं- 

दिल ना-उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है, 

लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है। 

बेहद धनात्मकता से भरा यह शेर मोहब्बत में हारे हर इंसान के लिए डूबते को तिनके के सहारे जैसा है। फै़ज़ जहाँ एक तरफ़ मोहब्बत की हार को दिल से ना लगाने का मशवरा देते हैं वहीँ -"और क्या देखने को बाक़ी है, आपसे दिल लगा कर देख लिया" - में वे मोहब्बत का एक मुख़्तलिफ़ रंग पेश करते हैं। इश्क़, मोहब्बत में टूटन, दर्द और हार को ज़ाहिर करता हुआ यह ख़ूबसूरत शेर "दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के, वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के" । मोहब्बत में डूबा इंसान किस क़दर पुर-उम्मीद रहता है इसकी झलक इस ख़ूबसूरत शेर में देखिए - "न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ, एक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं"। तमाम दिल-फ़रेब, दिल-अफ़्शाँ अशआर और ग़ज़लें लिखने के बावजूद फै़ज़ अहमद ‘फै़ज़’ के लेखन का सबसे ख़ूबसूरत आलम उनकी नज़्मों में दिखाई देता है। उनकी बहुत सारी नज़्में बेहद मशहूर और मक़्बूल हैं, लेकिन एक नज़्म ने फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ को ज़माने में एक अलग ही उरूज दिया, वह थी -

मुझसे पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग,

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात। 

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है । 

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात । 

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है। 


ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ मसाइल को सामने रखने वाली यह नज़्म अपने आप में एक मुकम्मल नज़्म है। अपनी ज़िन्दगी के मनाज़िर को बेहद बे-तकल्लुफ़ी से ज़ाहिर करते हुए फ़ैज़ एक और बा-कमाल नज़्म लिख गए हैं।

 "कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया, वो लोग बहुत ख़ुश-क़िस्मत थे, जो इश्क को काम समझते थे, या काम से आशिक़ी करते थे, हम जीते जी मसरूफ़ रहे, कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया”। फै़ज़ अहमद ‘फै़ज़’ ने इस नज़्म में बेहद बेबाकी से इश्क़ और काम के बीच की उलझन को ज़ाहिर किया है। फै़ज़ अहमद ‘फै़ज़’ इश्क़ के दायरे को हमेशा बड़ा मानते रहे, लेकिन ज़माने के हक़ीक़ी सवाल पर वे ज़्यादा मुस्तैदी से खड़े रहे। "हम देखेंगे" फै़ज़ अहमद ‘फै़ज़’ की एक और बेहद मक़्बूल नज़्म है, जहाँ उनका इन्क़िलाबी चेहरा बेहद रौशन दिखाई देता है। इसी नज़्म की यह पंक्ति क्रन्तिकारी विचारधारा और तमाम आंदोलनों की मूल पंक्ति बन गई-  

हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाए जाएँगे 

सब ताज उछाले जाएँगे 

सब तख़्त गिराए जाएँगे  

सत्ताधीशों के खिलाफ़ बिगुल बजाती यह नज़्म जल्दी ही आंदोलन और क्रांति का तराना बन गई।

अपनी खरी बातों, कम्युनिस्ट विचारधारा, सोवियत संघ से नज़दीकी आदि की वजह से फै़ज़ साहब को कई बार जेल जाना पड़ा और ख़ासा वक़्त उन्होंने जेल में गुज़ारा। पाकिस्तान के हुक्मरानों को फै़ज़ अहमद ‘फै़ज़’ के कम्युनिस्ट विचार इस्लाम के ख़िलाफ़ लगते रहे। 

फै़ज़ अहमद ‘फै़ज़’ ने अपने उसूलों और विचारों, अपने सुलझे ख़यालों से दुनिया के अलावा एक ख़ासी शख़्सियत को अपना मुरीद बना लिया था, वे पाकिस्तान के प्रमुख नेता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो थे जो बाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। भुट्टो ने फै़ज़ को इनफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्ट मिनिस्टर बना दिया और कई बड़े ओहदों से नवाज़ा लेकिन उनकी मौत के बाद फै़ज़ लेबनान चले गए और जब लौट कर आये तो ज़्यादा दिनों तक संगीन के सायों में अपने विचार रखने को तैयार नहीं हुए। फै़ज़ नोबेल पुरस्कार के लिए १९८४ में नामित हुए लेकिन इससे पहले कि फै़सला आता, उन्होंने दुनिया से इस्तीफ़ा लेने का फै़सला कर लिया और अपने विचारों तथा बोलों के बल पर हमेशा के लिए अमर हो गए। और बोल भी क्या लाजवाब! अपनी नज़्म ‘बोल’ के ज़रिये वे सबको हर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का पैग़ाम दे गए हैं:

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे 

बोल, ज़बाँ अब तक तेरी है 

तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा 

बोल कि जाँ अब तक तेरी है 


जन्म 


१३ फरवरी, १९११  सियालकोट


मृत्यु 


२०  नवंबर,  १९८४  लाहौर 


शिक्षा 

बी.ए., एम.ए.अंग्रेज़ी, एम.ए.अरबी-साहित्य 


प्रमुख कृतियाँ 

नक़्श-ए-फ़रियादी 

दस्त-ए-सबा

ज़िन्दान नामा 

ग़ुबार-ए-अय्याम 

पुरस्कार 

-१९५३ निगार पुरस्कार
-१९६३ सोवियत संघ से लेनिन शांति पुरस्कार
-१९८४ नोबेल पुरस्कार के लिये नामांकन
-१९९० निशान-ए-इम्तियाज
-२००६ Avicenna Prize

लेखक परिचय

 अविनाश त्रिपाठी भारत के प्रख्यात कवि, लेखक, फिल्मकार और गीतकार है।  दूरदर्शन के न्यूज़ एंकर के रूप में करियर की शुरुआत करके कई प्राइवेट चैनल्स में बतौर एग्ज़ीक्यूटिव प्रोड्यूसर रहे| उनके लिखे गीतों को प्रसिद्द बॉलीवुड गायक शान, कविता कृष्णमूर्ति, अन्वेषा, कविता सेठ, अभिषेक रे, अनुपमा राग सरीखे गायकों ने अपनी आवाज़ दी है| आप कई अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों के एडवाइज़र और ज्यूरी मेंबर भी रहे हैं| आप इंटरनेशनल आर्ट, कल्चर एंड सिनेमा फेस्टिवल के फाउंडर डायरेक्टर हैं| आपको अपनी रचनात्मक क्षमता के लिए ४० से ज़्यादा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।


8 comments:

  1. फ़ैज़ साहब पर अविनाश जी का यह लेख बेहद उम्दा एवं रोचक है। अविनाश जी को बधाई।

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    1. बहुत शुक्रिया फैज़ साहिब पर लिखना आम लेख को भी खूबसूरत बना देता है

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  2. अविनाश जी, फैज़ साहिब के इस खूबसूरत तआरुफ़ के लिए तहे दिल से शुक्रिया। बेहतरीन मज़मून।

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    1. इंकलाबियत और इश्कि़याना लहजे के हुनरमंद शायर फैज़ पर लिखना मुश्किल , फिर भी एक कमजोर कोशिश की, हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया प्रगति जी

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  3. फ़ैज़ अपने समय से आगे के शायर थे | उन की खुली सोच ने ज़िंदगी के हर पहलू को छुआ है | अविनाश जी ने उन्हें बखूबी समझा है , आत्मसात किया है और बहुत सुंदर , रोचक तरीके से बयान किया है |

    एक संग्रहणीय आलेख |

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    1. आपका बहुत बहुत आभार अनूप जी, फैज़ साहिब जिंंदगी के हर भाव को माकूल लफ्ज़ में ढालने के हुनर के माहिर थे । वह सच्चाई से जी हुई जिंदगी के सच्चे शायर थे

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  4. फैज पर लिखना मतलब कतरा कतरा फैज को जीना...शानदार

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  5. इनायत स्वरांगी जी, फैज़ को लिखने के लिए मुझे और बेहतर इंसान और अदब परस्त होना पड़ेगा

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