'वो तो ख़ुशबू है, हवाओं में बिखर जाएगा
मसअला फूल का है, फूल किधर जाएगा
हम तो समझे थे, एक ज़ख़्म है, भर जाएगा
क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा
शायद इन तीनों का मिला जुला प्रभाव यह था कि अब उँगलियों ने उस किताब से न हटने की ज़िद्द पकड़ ली थी। इत्तेफ़ाक़ से अगले दिन इतवार था और मैं देर रात तक किताब के हर पन्ने पर इश्क़, तड़प, दर्द, वफ़ा, जफ़ा बिखरने की दास्ताँ पढ़ रहा था। अलहदा तरीके से इश्क़ और इंतज़ार तकरीबन हर पन्ने पर बिखरा पड़ा था। दर्द कहीं ऐसे सुलग रहा था जैसे सफ़ेद राख ने आग के नारंगी बदन को छिपा लिया हो लेकिन उसकी ऊष्मा, अभी भी राख से आ रही हो। किसी शायरा की सोच का इतना लताफ़त भरा, दिलफ़रेब, दिल अफ़्शाँ इज़हार पढ़ने से मेरे दिल का सबसे गहरा हिस्सा इश्क़ के रोमानी रंग से गुलाबी हो गया था। इश्क़ के लतीफ़ चेहरे के साथ जो चीज़ दिल को छू रही थी वह थी उनकी, ‘औरतों के हक़-हुक़ूक़ में खड़ी पुरज़ोर आवाज़’। सच कहूँ तो सिर्फ एक किताब, चंद गज़लें और एक रात में मैं उस शायरा का मुरीद हो गया, जिसे दुनिया परवीन शाकिर के नाम से जानती है।
परवीन शाकिर 'बीना’ उपनाम से तमाम अख़बारों में आर्टिकल, ग़ज़ल लिखती थीं। कुछ ही सालों में पकिस्तान में उनके ख़ुद बयानी के किस्से मशहूर और मक़बूल हो गए। २४ साल की उम्र में उनकी पहली किताब 'ख़ुशबू' पाकिस्तान के हर अदब पसंद इंसान तक पहुँच गई। 'ख़ुशबू' में इश्क़िया दास्ताँ इस कदर मुलामियत से परोसी गयी थी कि हर ग़ज़ल आँखों को गीला करती, होंठों पे तबस्सुम बिखेरती, दिल की सबसे गहरी रग में ख़ामोशी के साथ ऐसे बैठ जाती कि फिर कोई ग़ज़ल, उस स्थान को नहीं ले पाती। वे हर शेर में ऐसी बयानी पेश करतीं कि शेर ख़त्म होते-होते दिल की ज़मीन पर उनका ठप्पा लगा चुका होता। ऐसे ही कुछ शेर..
मेरी तलब था एक शख़्स, वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा, भूल गया सवाल भी
उसकी सुख़न-तराज़ियाँ, मेरे लिए भी ढाल थीं
उस की हँसी में छुप गया, अपने ग़मों का हाल भी
इश्क़ के न मिलने का रिसता हुआ दर्द पलकों की तासीर को कड़वा सा कर देता है। पाकीज़ा और बेपनाह मोहब्बत का एक दीनी नज़रिया और रुख़ भी होता है। परवीन शाकिर ने कई बार अपने आम से लगते शेरों में इस कदर, सूफ़ीयाना अंदाज़ भरा के दो बार शेर पढ़ते-पढ़ते आप हक़ीक़ी दुनिया से दीनी दुनिया का सफर तय कर लेते हैं। उनके कुछ शेर इसी लहजे का मोजज़ा हैं..
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उसकी दुल्हन सजाऊँगी
सुपुर्द करके उसे चाँदनी के हाथों में
मैं अपने घर के अँधेरों में लौट आऊँगी
इन शेरों में इश्क़ के बलिदान की पराकाष्ठा नहीं बल्कि मोहब्बत में मोक्ष पाने जैसी फ़ितरत है। यहाँ प्रेम में ईश्वर होने जैसा उरूज है, इश्क़ में ख़ुदाई की छिपी ख़्वाहिश है, आसमानी होने का तकाज़ा है। इसी लहजे का उनका एक और शेर बेहद दिल फरेब है..
मैं उसकी दस्तरस में हूँ मगर
वो मुझे मेरी रज़ा से माँगता है
परवीन शाकिर में इश्क़ की हर परत के नीचे छुपे अहसास को समझने की ग़ज़ब की सलाहियत थी । वो अपने शेर दर शेर में एक नयी परत को लातीं और उसमें वाबस्ता ख़्याल को हौले से आपकी नज़्र कर देतीं। मोहब्बत के ज़ख्म का मुस्तक़्बिल क्या होता है और उसके ज़ख्म की तक़्दीर में हमेशा के लिए हरापन, सदा के लिए शादाबी ही होती है- इस बात को परवीन इतनी हुनरमंदी से ज़ाहिर करती कि उनकी समझ पर इतराने का दिल करता है। उनके शेर इश्क़ के ज़ख्म की तासीर इस शिद्दत से पेश करते कि लगता है इश्क़ और मोहब्बत को समझने के लिए, उन्होंने न जाने कितनी मोहब्बत की होगी..
बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा।
यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा।
परवीन के ज़ख़्म जब ज़्यादा हरे हो जाते और जफ़ा की रह-रह के लहर उठती तो वे कुछ ऐसा तंज़ो मिज़ाह में लिखतीं कि दर्द की उठती हुई लहर आपके बदन से टकराती सी लगती। उनके ग़ज़ल के कुछ शेर देखिए..
तराश कर मिरे बाज़ू उड़ान छोड़ गया
हवा के पास बरहना कमान छोड़ गया
जो बादलों से भी मुझ को छुपाए रखता था
बढ़ी है धूप तो बे-साएबान छोड़ गया
न जाने कौन सा आसेब दिल में बस्ता है
कि जो भी ठहरा वो आख़िर मकान छोड़ गया
औरतों के हालात की परतें नोचती यह नज़्म मर्दों की दुनिया में औरतों की स्थिति का बरहना चित्रण है। यह औरतों को देवी और मरियम बुलाने वाली दुनिया का स्याह सच है जिसे परवीन ने बेबाकी और बेरहम तरीक़े से ज़ाहिर किया है। परवीन जब लड़कियों के दिली मंज़र का आकाश खोलती हैं तो यूँ कहानी बयान होती है..
लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ साथ
दिल को छू लेने वाले अल्फ़ाज़ों में बयां की है। आपने परवीन शाकिर की दास्ताँ अविनाश जी। कलम को सलाम
ReplyDeleteआपका बहुत आभार हर्षा जी
Deleteबहुत अच्छा लिखा है। परवीन शाकिर के जीवन को तो बताता ही है टिप्पणी लेखक की रचनात्मकता का प्रमाण भी है।
ReplyDeleteपरवीन शाकिर मेरे उगते हुए दिनों में मेरी उंगलियों में उलझ गई थी, आज भी उनकी किताब *खुशबू* की लम्स मेरी उंगलियों मे बसी है। आपका बहुत आभार रेखा जी
Deleteखूबसूरत....
ReplyDeleteइनायत
Deleteउम्दा लेख के लिये अविनाश जी को बधाई। परवीन शाकिर एक ऐसी शायरा जिनको पढ़ने पर इंसान बहुत जुड़ाव महसूस करता है। कम उम्र में ही वो उर्दू अदब में अपनी अलग जगह बना गई।
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार दीपक जी
Deleteबेहतरीन आलेख , अविनाश जी । परवीन शाकिर ने बहुत खूब लिखा पर उनके लिखे को गहराई से समझने और बयान करने की आपकी क़ाबिलियत कुछ कम नहीं । वह आज होतीं तो यह लेख पढ़ कर बहुत खुश होतीं । मुझे दुष्यंत कुमार का शेर याद आ गया :
ReplyDeleteहाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था ,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए ।
आपका बहुत शुक्रिया हरप्रीत जी, आप लफ़्जों से होते हुए रूह तक चले जाते हैं। आपका खास शुक्रिया , लेख को इतना मानी देने के लिए। 🙏🙏🌹🌹
Deleteअविनाश जी, उम्दा लेख के लिए बधाई क़ुबूल करें। यह लेख परवीन शाकिर के प्रति आपके रुझान और लगाव को बख़ूबी दिखाता है और शायरा के क़लम से ख़ूब मिलवाता है। इसे पढ़कर उनकी ज़िन्दगी को क़रीब से जानने को जी करता है।
ReplyDeleteमेरी किशोरावस्था मै परवीन शाकिर और मजाज लखनवी ने रहबर बन कर , मुझे जिंदगी की थोड़ी समझ देने की कोशिश की, हालांकि मैं कामयाब नहीं हो पाया 🙏। आपका बहुत शुक्रिया प्रगति जी
Deleteपरवीन शाकिर पर उत्तम आलेख पढ़कर मज़ा आ गया।अविनाश त्रिपाठी व पूरी टीम को बधाई।
ReplyDeleteआपका बहुत आभार सरोज जी
Delete‘हँसती थी और काजल भीगता था साथ-साथ’यही तो सच है...
ReplyDeleteलड़कियों की जिंदगी का यह सच , परवीन शाकिर की कलम का कमाल है
ReplyDeleteAvinash bhai. Bahut khoob likha hai, jaise gagar mein saagar.Aapne Haq adaa kar diya. Thanks for penning this informative write-up. "suna hai unki tehreer bahut acchii hai, Sochtaa hoon unse apnee taqdeer likhwa loon.
ReplyDeleteबहुत इनायत अली भाई, परवीन शाकिर की हर लफ्ज़ में बहुत हरारत है, उन पर लिखना , खुद के लफ्जों में रोशनी भरने जैसा है
Delete“कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
ReplyDeleteउस ने ख़ुशबू की तरह मेरी पज़ीराई की”
यह ख़ुशबू में डूबा हुआ शेर लिखने वाली परवीन शाकिर जी की पुख़्ता कलम यह भी लिखती है,
“लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ साथ”
अविनाश जी, परवीन शाकिर साहिबा के जन्मदिन पर उनकी शायरी के इत्र में डूबा हुआ उम्दा आलेख!
आपका बहुत शुक्रिया शरदुला जी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,अविनाश जी, परवीना की शायरी जितनी पाकिस्तान में मशहूर है,उससे ज्यादा भारतीय सोशल मीडिया पर परवान चढ़ी है। नारी की इतनी कोमल भाव बहुत कम पाएं जाते है।भारतीय नवयुवा पीढ़ी का चर्चित नाम।
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार विजय जी
Deleteबहुत ही बेहतरीन लेख लिखा है आपने 👏👏
ReplyDeleteबहुत आभार डॉक्टर मीनू जी
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