इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता
तंज़ और इश्क़ जब किसी शायर के ज़रिए मिलते हैं तो एक ही नाम बनता है ‘अकबर इलाहबादी’, जिनकी हिंदुस्तानी ज़ुबान और तहज़ीब से सजी उनकी शायरी ज़िन्दगी और ज़ेहन का एक ऐसा आइना है, जिसमें एक ओर राजनितिक-सामाजिक सच्चाइयाँ चुटीले अंदाज़ में झलकती हैं,
‘कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया
जब कोई तक़रीर की जलसे में लीडर बन गया’
तो दूसरी ओर इश्क़ से जुड़ी हक़ीक़त और ख़्वाब की हर तस्वीर नज़र आती है,
‘मौत आई इश्क़ में तो हमें नींद आ गई
निकली बदन से जान तो काँटा निकल गया’
अकबर ने जिस दौर में जन्म लिया वहाँ दकियानूस सोच को नकार कर तरक़्क़ी को बढ़ावा मिल रहा था, ऐसे में अकबर पर इस माहौल का असर पड़ना ही था। उन्हें ख़ुद भी लगता था कि इस बदलाव को समाज एक समझदारी के साथ अपनाए ताकि उसमें संकुचित सोच के लिए कोई जगह न हो, कोई ऊपरी दिखावा न हो, पश्चिमी सभ्यता की अंधाधुंध नक़्ल न हो। साथ ही उनका मानना था कि पश्चिमी सभ्यता की अच्छी बातों को अपनाने के साथ पूरब की सभ्यता की हर बात को भी आधुनिकता के दौर में नकारा नहीं जा सकता। अपनी संस्कृति और दर्शन के क़ायल अकबर विरोध और सहमति को एक पुख़्ता तर्क के साथ अपनाते थे और यही बात वो दूसरों से भी चाहते थे।
‘रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा-जा के थाने में
कि ‘अकबर ‘ नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में’
अकबर सूफ़ियाना अंदाज तो रखते थे, लेकिन सामाजिक बदलाव और मुद्दों में भी उसी तरह शिरकत करते थे। इसलिए उनकी शायरी मज़हब और दुनियादारी के बीच का रास्ता निकालती नज़र आती है और आसपास के परिवेश को एक अलग नज़रिये से देखने पर मजबूर करती है, जिसमें एक आम इंसान का नज़रिया भी शामिल है। अनुभव, सोच, और दर्शन से जुड़े जो भाव उनके लेखन में मिले वे पढ़ने वालों के दिलों-दिमाग का हिस्सा हैं।
उन्होंने उर्दू शायरी को एक नई ज़ुबान दी और नई शब्दावलियाँ गढ़ीं, आम बोलचाल के वो आसान शब्द जो शायरी की पहुँच तक नहीं थे, उन्हें अपनी क़लम से जगह देकर नया अंदाज़ ही दे डाला। जिस तरह उर्दू में हास्य व्यंग्य (तन्ज़िया व मज़ाहिया) की बुनियाद उन्होंने डाली, उसने आगे आने वाले शायरों को सोच और प्रयोगों की नई इमारत बनाने में मदद की। अकबर की ग़ज़लें, नज़्में, रुबाइयात और व्यक्तिगत दोहे तीन खण्डों में बँटे हैं, जिनमें महात्मा गाँधी पर उनकी कविताओं का एक चर्चित संग्रह, “गाँधीनामा” है। इसके आलावा उनका एक प्रमुख लेखन कार्य कुल्लियत अकबर इलाहाबादी है। ‘कुल्लियत’ अर्थात “कविताओं का संग्रह'', उनकी चौथी मात्रा कुल्लियात १९४८ में प्रकाशित हुई। उन्होंने वही बातें लिखीं जिन्होंने उनके दिल तक दस्तक दी-थी
दिल पे गुजरी न हो जो ऐसी कोई बात नहीं।’
अकबर की व्यक्तिगत और शायराना शख़्सियत का यह कमाल ही तो है कि उन्होंने अपनी किसी भी बात को राज़ या कश्मकश की तरह न रख कर अपनी नज़्मों-ग़ज़लों के माध्यम से उसे पूरी सच्चाई और खुलेपन के साथ पेश किया है। उनका लहज़ा भले ही फक्क्ड़ अंदाज और गैर संजीदा लगता रहा हो उन्हें हमेशा संजीदा शायरों में ही जगह मिली है। बल्कि उनका यह तरीक़ा एक नई धारा को विकसित करता है, इन हवालों से अगर उनकी शायरी को कोई नायाब नाम दिया जाये तो उर्दू अदब में वह एक अलग लेकिन जल्दी ही पुख़्ता पकड़ बनाती नजर आएगी।
मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी ने उनके लिए कहा है -
'उनकी ज़ात शोख़ी व ज़िन्दादिली और हिक्मत व रूहानियत के मुतज़ाद औसाफ़ का हैरतअंगेज़ मजमूआ थी। वो इरतेकाए-हस्ती के उस बुलंद मर्तबा का फ़ाईज थे जहाँ शायरी फ़लसफ़ा व तसव्वुफ़ के इख्तेलाफ़ात (अंतर्विरोधों) व तनाज़आत विवाद ) रफ़ा होकर बाहम इत्तेहाद पैदा हो जाता है।''
अकबर की प्रारंभिक शिक्षा मदरसे में हुई, बड़े होने पर उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। अदालत में एक छोटे से मुलाज़िम की तरह काम की शुरुआत करके साथ-साथ क़ानून की पढ़ाई की और सेशन जज के रूप में रिटायर हुए। उनकी दोनों पत्नियों से दो-दो पुत्र, व एक पुत्री थे। विभाजन के वक़्त बेटी पाकिस्तान में और बेटे विदेश में बस गए। एक बेहद खुशमिज़ाज और हाज़िर जवाबी स्वभाव वाले अकबर का अंतिम समय सुखद नहीं रहा। अपने एक बेटे और पोते की मौत के हादसे को पूरी तरह सहन नहीं कर पाए और अवसाद से घिर गए। ९ सितम्बर १९२१ को ७५ साल की उम्र में इलाहाबाद में उनकी मृत्यु हो गई।
शिक्षा के ऊँचे आयाम पर पहुँचने के बाद भी वो डिग्री की बनिस्पत इंसान के व्यवहार को तवज्जो देते थे, इस बात को लेकर उनका एक क़िस्सा काफ़ी मशहूर है कि उनसे मिलने आये एक शख़्स ने घर के भीतर अपना विज़िटिंग कार्ड भिजवाते वक़्त पेन से लिख दिया ‘बी.ए.’ पास , थोड़ी देर बाद अकबर ने उन्हें एक पर्ची भिजवाई, जिस पर लिखा था
‘आप बी.ए. पास हैं तो बंदा बीवी पास है।’
इतने सालों बाद शहर में अकबर की यादों को संजोए हुई अब दो ही निशानियाँ बाक़ी हैं, एक उनकी रानी मंडी वाली कोठी ‘इशरत मंज़िल’ जिसमें अब यादगारे हुसैनी इंटर कॉलेज चलता है, दूसरी उनकी मज़ार, जहाँ खास दिनों पर भी न के बराबर लोग आते हैं, उनसे जुड़े सामान और चिट्ठियाँ भी नहीं मिल पाती हैं। नेहरू परिवार की कोठी का आनंद भवन नाम रखने का भी एक मशहूर क़िस्सा है। अकबर इलाहबादी और मोतीलाल नेहरू बहुत अच्छे मित्र थे, जब मोतीलाल नेहरू ने आनंद भवन ख़रीदा तो उन्होंने इसके नाम के लिए अकबर से सलाह ली, तब अकबर ने कहा था, मेरी इशरत मंजिल का तर्जुमा (अनुवाद) कर दें जिसका अर्थ था, ऐसा भवन जहाँ आनंद हो और मोतीलाल नेहरू को नाम मिल गया, ‘आनंद भवन’।
अकबर के नहीं रहने पर अकबर मेमोरियल सोसाइटी का गठन करके उनकी कोठी में १९४८ में पुस्तकालय की स्थापना की गई थी पर वो समुचित तरीके से चल न सका। लेखन की इस विस्तृत दुनिया का एक बड़ा अंधकारमय पक्ष यह है कि हम रचनाओं को तो प्यार दे देते हैं , पर लेखकों को भूल जाते हैं!
‘निगाहें कामिलों पर पड़ ही जाती है ज़माने की
कहीं छुपता है ‘अकबर’ फूल पत्तों में निहाँ हो कर’
और अगर अकबर के शब्दों में ही इसे इस तरह कहें तो गलत नहीं होगा
‘तह्सीन के लायक़ तिरा हर शेर है ‘अकबर’
अहबाब करें बज़्म में अब वाह कहाँ तक ’
संदर्भ
लेखन व शोध में सहयोग : वरिष्ठ पत्रकार द्वय- धनंजय चोपड़ा व अनिल सिद्धार्थ
तथा पत्रिका `बरगद`।
अर्चना उपाध्याय
डिज़ाइनर,डीसी (हैंडीक्राफ्ट), मिनिस्ट्री ऑफ टेक्सटाइल्स
डायरेक्टर , अंतरा सत्व फाउंडेशन
यूट्यूबर 'अंतरा द बुकशेल्फ़'
archana.upadhyay20.01@gmail.com
एक बेहतरीन शाइर अकबर इलाहाबादी पर बेहद उम्दा लेख मंजरे-आम हुआ है। अर्चना जी को बधाई।
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख... दिवस विशेष पर इतनी समग्र सामग्री संग्रहणीय है।
ReplyDeleteसुंदर आलेख.
ReplyDeleteसुन्दर और रोचक प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सुंदर, रोचक! शुरू के तीन शेर पढ़ने के बाद आगे पढ़ने से शायद की कोई अपने आप को रोक पाये।
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख।
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