Friday, November 12, 2021

हिंदी के आदि कवि : अमीर ख़ुसरो

 

अमीर ख़ुसरो खड़ी बोली हिंदी के आदि कवि माने जाते हैं। अमीर ख़ुसरो की गणना एक ऐसे अद्भुत संस्कृति-प्रवर्तक साहित्यकार के रूप में होती है, जिन्होंने धर्म विशेष  से ऊपर उठकर समन्वयवादी मानवतावाद की नींव डाली, जिसने हिन्दू और मुस्लिम वर्ग को भावनात्मक सूत्र में बाँधा और  राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ता प्रदान की। 

 

ख़ुसरो पाती प्रेम की, बिरला बाँचे कोय, 

वेद पुराण पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय 

 

ऐसे दोहे रचकर अमीर ख़ुसरो ने प्रेम के उस शाश्वत रूप को मंडित किया जो न केवल आध्यात्मिक और अलौकिक है, बल्कि समस्त मानव को एक समावेशी दृष्टि भी देता है। अमीर ख़ुसरो के कवित्व का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि सदियाँ बीत जाने पर भी उनके गीतों, पहेलियों और मुकरियों का जादू आज भी लोगों की ज़ुबान पर चढ़कर बोलता है। “अमीर ख़ुसरो न केवल इतिहास के अंश हैं बल्कि वे अपने आप में संपूर्ण भूगोल, साहित्य, संगीत, एवं संस्कृति हैं और तेज़ी से भागते हुए समय और बदलते हुए परिवेश के मध्य अपने स्थान पर मज़बूती से ठहरा एक कालखण्ड भी । हमारे उत्तर भारतीय संस्कृति, साहित्य व संगीत में स्थान-स्थान पर आज भी अमीर ख़ुसरो अपनी पूरी ऊर्जा व ताज़गी के साथ जीवंत हैं। अमीर ख़ुसरो अपने कालखण्ड के एक ऐसे स्फ़टिक हैं जिसके एक कोण में अरब की सभ्यता है तो दूसरे कोण में फ़ारसी संस्कृति झलकती है किंतु जब इस प्रिज़्म की संपूर्ण आभा को एक बिंदु पर संचित किया जाये तो वह अमीर ख़ुसरो की ‘हिंदवी’ बन जाती है, जो तत्कालीन भारतीयता की पहचान और खुशबू है।

          

हिन्दुस्तानी माता और तुर्की पिता की संतान अमीर ख़ुसरो का असली नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन था। इनका जन्म 652 हिज़री अर्थात 1253 ई. में उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के पटियाली नामक गाँव में हुआ था, जिसे मोमिनाबाद नाम से जाना जाता था। ख़ुसरो इनका उपनाम था और सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने इनकी काव्य-प्रतिभा से प्रसन्न होकर इन्हें अमीर का ख़िताब दिया था जिसके पश्चात ये अमीर ख़ुसरो नाम से प्रसिद्ध हुए। जिस समय ख़ुसरो पैदा हुए थे, उस समय फारसी दरबारी भाषा थी और चूँकि उनका अधिकांश जीवन राज्याश्रय में बीता इसलिए उनके साहित्य का बहुत बड़ा भाग फ़ारसी भाषा में लिखा गया है। यह अमीर ख़ुसरो का हिंदी और हिन्दुस्तान  के प्रति प्रेम ही था कि उन्होंने हिंदी में साहित्य रचना करके न केवल उसे समृद्ध किया बल्कि उसे राष्‍ट्रीय स्वाभिमान से भी जोड़ा। उन्होंने अपनी इस भाषा  के लिए सर्वप्रथम हिन्दवी शब्द का प्रयोग किया जो उस समय दिल्ली और मेरठ में बोली जाती थी और ऐसा करके उन्होंने हिंदी को एक विशिष्ट पहचान दी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं- 'वीरगाथा काल के समाप्त होते-होते हमें जनता की बहुत कुछ असली बोलचाल और उसके बीच कहे सुने पद्यों की भाषा के बहुत कुछ असली रूप का पता चलता है। पता देने वाले हैं दिल्ली के ख़ुसरो मियाँ और तिरहुत के विद्यापति '

         

ख़ुसरो को हिंदी भाषा पर गर्व और स्‍वाभिमान था, वे हिंदी को अपनी मातृभाषा स्वीकारते हुए कहते थे कि - मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ,अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो जिससे कि मैं कुछ अद्भुत बातें तुम्हें बतला सकूँ।

(चू मन तूतिये-हिन्दम आर रास्त पुर्सी, ज़ि मन हिन्दवी पुर्स ता नज़्म गोयल । )


ख़ुसरो की जनप्रियता का एक बहुत बड़ा आधार लोकजीवन के प्रति उनका समर्पण था। हिन्दुओं के दैनिक जन-जीवन में प्रचलित रीति-रिवाज़, संस्कार, उत्सवादि पर लिखे गए उनके गीतों, पहेलियों और मुकरियों ने उनकी विराट लोकप्रियता को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। आज लगभग सात सौ वर्ष बीत जाने के बावजूद लोकजीवन से जुड़े अपने वैविध्यपरक साहित्य के कारण ही वे सबके ह्रदय में बसे हुए हैं। संगीत और विवाहादि कार्यक्रमों में उनके लिखे मधुर गीत आज भी तन्मयता से गाये जाते हैं- "अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया " जैसे भावपूर्ण गीतों में बेटी की मायके जाने की तड़प को ख़ुसरो जैसे संवेदनशील और समाज से जुड़े कवि ही महसूस कर सकते थे। छह सुल्तानों से भी अधिक के राजाश्रय से विकसित आभिजात्य और स्वभावतया लोकमानस से जुड़ी जड़ें अमीर ख़ुसरो जैसे एक ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं जो विलक्षण  होने के साथ ही अद्वितीय भी हैं। 


          संत निज़ामुद्दीन औलिया अमीर ख़ुसरो के आध्यात्मिक गुरु थे, जिन्होंने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को अलग ढंग से निखारने तथा उसे परिनिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अमीर ख़ुसरो के साहित्य का सूफ़ियाना मिजाज़, दार्शनिकता और फक्कड़पन  संत औलिया की ही देन  है। औलिया के सान्निध्य एवं साहचर्य ने ही ख़ुसरो को नवीन जीवन दृष्टि प्रदान की, मानवता के प्रति अभिनव सोच दी और प्रेम के प्रति वह आध्यात्मिक शक्ति दी, जहाँ आत्मा-परमात्मा एकाकार हो जाते हैं और प्रेम साधारण धरातल से ऊपर उठकर इश्क़ मजाज़ी से  इश्क़ हक़ीक़ी में तब्दील हो जाता है। परमानन्द पांचाल लिखते हैं कि "ख़ुसरो जब प्रेम के रूमानी वातावरण में डूबकर गाते हैं तो लगता है कि श्रोता और पाठक उसी रंग में खो गए हैं। जब वह हँसते हैं तो सर्वत्र परिहास के फव्वारे फूट पड़ते हैं,और जब रोते है तो दूसरे की आँख भी नम हो जाती है। "

          

ख़ुसरो अपने गुरु के प्रति असीम  निष्‍ठा और श्रद्धा रखते थे और उन पर अपना सर्वस्व निछावर कर देने की भावना रखते थे। गुरु-शिष्य प्रेम की इस अनूठी मिसाल से संबंधित एक किस्सा आज भी लोगों की ज़ुबान पर दर्ज है। हुआ यों कि एक बार दिल्ली जाते समय ख़ुसरो को एक अजनबी मिला जिसे देखकर उन्हें अपने गुरु निज़ामुद्दीन की खुशबू महसूस हुई और उन्होंने उससे कहा कि तुमसे मुझे मेरे पीर की सुरभि आ रही है, उस अजनबी ने ख़ुसरो को बताया कि वह हज़रत निज़ामुद्दीन से मदद माँगने  गया था, चूँकि निज़ामुद्दीन के पास कुछ नहीं था इसलिए उन्होंने मुझे अपनी चप्पलें दे दीं। जनश्रुति है कि गुरु के प्रति प्रेम विभोर होकर उन्होंने अपनी सारी संपत्ति के बदले उस गरीब से वे चप्पलें ले लीं। गुरु  के प्रति इस अटूट स्नेह के कारण ही उनकी मृत्यु से ख़ुसरो  इतने विचलित और निर्लिप्त हो गए कि उन्होनें अपनी सारी संपत्ति जरूरतमंदों में बाँट दी। लगभग छह महीने उन्होंने अपने गुरु  की मज़ार पर झाड़ू लगाते और उनकी याद में तड़पते हुए व्यतीत कर दिए। सन १३२५ में जीवन के अंत समय आने पर -’ख़ुसरो रैन सुहाग की ,जागी पी के संग ,तन मेरा मन पीऊ का ,दोउ भये एक रंग ‘ गाते हुए उन्होंने गुरु  की मज़ार पर ही अपने प्राण त्याग दिए। उनके समर्थकों द्वारा अमीर ख़ुसरो की मज़ार  भी  उनके गुरु  के पायताने पर बना दी गई। ख़्वाजा निज़ामुद्दीन की मज़ार पर होने वाले सालाना उर्स का आरंभ ख़ुसरो के दोहे ‘गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस,  चल ख़ुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस ‘ से करके  गुरु-शिष्य  को  भावभीनी श्रद्धांजलि दी जाती है। 


         ख़ुसरो बहुभाषाविद थे। वे फ़ारसी,अरबी,तुर्की और हिंदी पर पूर्ण अधिकार रखते थे। संस्कृत भाषा का भी उन्हें ज्ञान था। लेकिन उन्होंने सर्वाधिक रचनाएँ फ़ारसी में लिखीं। फ़ारसी भाषा में उन्होंने ग़ज़ल, रुबाई, कसीदा और मसनबी आदि अनेक विधाओं में लिखा और खूब यश कमाया। उनकी लिखने की शैली से प्रभावित होकर ही मिर्ज़ा ग़ालिब कहते हैं –

         ग़ालिब मेरे कलाम में क्यों कर  मज़ा न हो,

         पीता हूँ धोकर ख़ुसरूए शीरीं सुखन के पाँव। 


ऐसा माना  जाता है कि उन्होंने फ़ारसी में  तीन लाख से भी अधिक शेर लिखे हैं। उनके मित्र जियाउद्दीन बर्नी का कहना है कि ख़ुसरो की इतनी रचनाएँ हैं कि एक किताबघर बन जाए। फ़ारसी में उनके अभी तक प्राप्य ग्रंथों की संख्या ४५ है जो भारत, उज़्बेकिस्तान, तुर्किस्तान, मध्य एशिया, ईरान और यूरोप के कई पुस्तकालयों में सुरक्षित हैं। फ़ारसी में लिखे उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं –गुर्रतुल कमाल, किस्सा चार दरवेश, तुग़लक़नामा, नुह सिप हर, शीरीं व ख़ुसरो, मजनू लैला तारीखे दिल्ली, हालत कन्हैया व कृष्ण, तारीखे दिल्ली,तराना हिंदी आदि।   सुल्तान कैकुबाद के आश्रय में रहते हुए उन्होंने प्रथम मसनबी काव्य किरानुस्सोम लिखा। फ़ारसी में इतने व्यापक स्तर पर वैविध्यपूर्ण और जनोपयोगी साहित्य लिखने के कारण ही कैकुबाद ने उन्हें मलिक्कुशोअरा अर्थात राष्ट्रकवि की उपाधि प्रदान की थी।

          फ़ारसी में रचना करने के साथ-साथ ख़ुसरो को खड़ी बोली हिंदी  में काव्य रचना करने वाला पहला  कवि माना जाता है।  उन्होंने जनसाधारण के मनोरंजन के लिए पहेलियाँ और मुकरियाँ आदि लिखीं जिनका लोक-साहित्य के साथ ही शास्त्रीयता की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। ख़ुसरो की हिन्दी रचनाओं को मौलाना अमीन अब्बासी चिरमाकोठी ने 'जवाहर खुसखी' नाम से १९१८ ई. में अलीगढ़ से संपादन किया था। हिन्दी के ब्रजरत्न दास ने सं. २०३० में काशी नागरी प्रचारिणी सभा से संपादित किया था। इन संग्रहों में पहेलियाँ , कहमुकरियाँ, दोहे, निस्बतें, दो सुखने, ढकोसले आदि संकलित हैं।

अमीर ख़ुसरो के दोहे, पहेलियों आदि के कुछ रोचक उदाहरण प्रस्तुत हैं -

बूझ पहेली-(जिसमें पहेली के अन्दर ही उसका अर्थ रहता है)-

         बीसों का सर काट लिया, न मारा ना  खून किया (नाख़ून )

बिन बूझ पहेली –  झिलमिल का कुऑं, रतन की क्यारी 

                बताओ तो बताओ, नहीं दूँगी  गारी 

कह मुकरियाँ - पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो, जब उतरयो पसीना आयो

            सहम गई नहीं सकी पुकार, ए सखी साजन, नहीं सखी बुखार

दो सुखना – राजा प्यासा क्यों, गधा उदासा क्यों ? (लोटा न था)   

अमीर ख़ुसरो का ख़ालिकबारी के रूप में हिंदी साहित्य को एक और महत्त्वपूर्ण योगदान है। ख़ालिकबारी अरबी-फ़ारसी और हिन्दी का पद्यमय पर्यायवाची शब्दकोश है। ख़ुसरो के समय में  फ़ारसी का प्रयोग राजभाषा के रूप में किया जाता था और आम जनता को फ़ारसी भाषा नहीं आती थी, दूसरी ओर विदेश से आने वाले लोगों को हिन्दुस्तान  की भाषा का ज्ञान होना जरूरी था। इन कारणों को  देखते हुए ख़ुसरो ने अरबी-फ़ारसी तथा हिन्दी के छन्दबद्ध  पर्यायवाची शब्दकोश की रचना की जिसे आगे चलकर मदरसों में भी अध्‍ययन और अध्‍यापन के लिए उपयोग किया जाने लगा।

      ख़ुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साहित्‍य सृजन  के साथ ही उन्हें संगीत का ही बहुत  शौक था। संगीत की कई राग–रागिनियों के आविष्कार का श्रेय उनको जाता है। संस्कृतनिष्‍ठ ध्रुपद के स्थान पर उन्होंने साधारण जनमानस हेतु ख्याल राग का अविष्कार किया। भारतीय और ईरानी रागों का सुन्दर मिश्रण करना ख़ुसरो की ख़ास खूबी थी। गारा और फ़ारसी राग मिलाकर बना मजीर राग, हिंदौल और फ़ारसी राग नीरिज मिलकर बना ऐमन राग तथा इमान, जिल्फ़, साजगरी आदि नवीन राग शैलियॉं  ख़ुसरो की ही देन हैं। इसी प्रकार भारतीय गायन में क़व्वाली और सितार के जनक भी ख़ुसरो ही माने जाते हैं। 

          ख़ुसरो ने अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग तत्कालीन सुल्तानों के साथ बिताया था। इस वज़ह से उनके साहित्य में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से तत्‍कालीन घटनाओं की काल क्रमानुसार जानकारियाँ और युगचेतना मिलती हैं जिनका ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है। हरिश्चंद्र वर्मा का मानना है कि –”अमीर ख़ुसरो का एक मजबूत पहलू  है कि उन्होंने बहुत सी तिथियाँ दी हैं और उनके द्वारा किया गया कालक्रम सामाजिक स्थितियों पर भी काफ़ी प्रकाश डालता है,  और यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी तरफ उस समय के इतिहाकारों का ख़ास ध्यान नहीं गया।” 

यकीनन आज ख़ुसरो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी मनोरंजक एवं दिलचस्प पहेलियों, भावपूर्ण गीतों और ‘छाप तिलक सब छीनी मोसे नैना मिलाय के’ जैसी सूफ़ियाना कव्वालियों के माध्यम से हिंदी साहित्‍य जगत में अमर हो गए।  उनके रचना संसार ने मानव समाज के मनोरंजन के साथ भारतीयता के कई पहलू परिभाषित किए। 


सन्दर्भ:

  • अमीर ख़ुसरो: भारतीय सांस्कृतिक पुरुष, तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्ज़ीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप, जून १७, २० )
  • हिंदी साहित्य का इतिहास:आचार्य रामचंद्र शुक्ल 
  • अमीर ख़ुसरो –व्यक्तित्व और कृतित्व, परमानन्द पांचाल, हिंदी बुक सेंटर, नई दिल्ली २०१२
  • ख़ुसरो की हिंदी कविता, ब्रज रत्नदास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी २००८
  • मध्यकालीन भारत, हरिश्चंद्र वर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-१९९६
लेखक परिचय

डॉ नूतन पाण्डेय, भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय में सहायक निदेशक पद पर  पदस्थ हैं और २०१५ से २०१९ तक भारतीय उच्चायोग, मॉरीशस में राजनयिक के रूप में पदस्थ रहीं।  भाषा विज्ञान और प्रवासी साहित्य पर  उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  


8 comments:

  1. सुंदर आलेख , नूतन जी । आपने सीमित शब्दों में अमीर खुसरो का पूरा खाका बड़ी दक्षता से प्रस्तुत किया है । आपको बधाई , शोध के लिए भी और अभिव्यक्ति के लिए भी ।

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  2. बहुत ही रोचक लेख बना है खुसरो पर। पढ़ने पर सुखद अनुभूति हो रही है। नूतन जी को हार्दिक बधाई।

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  3. अत्युत्तम आलेख, नूतन जी। आपने तो गागर में सागर को सार्थक कर दिया। इतनी विस्तृत जानकारी को क्या रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है। इस लाजवाब प्रस्तुति के लिए बधाई और शुक्रिया।

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  4. ये अति-उत्तम दर्जे का आलेख न केवल खुसरो के बहुआयामी व्यक्तित्व, प्रतिभा व योगदान को एक गागर में बड़े सौन्दर्य के साथ समेटने में सफल हुआ है, बल्कि साथ में डॉ. नूतन पाण्डेय जी के कौशल व रचनाधर्मिता का भी परिचायक है। लेख पढ़ कर मन भीग गया। ये अपने आप में डॉ. पाण्डेय जी व टीम की सफलता की सनद है! हार्दिक बधाई एवं आभार। 💐
    - राय कूकणा, ऑस्ट्रेलिया

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  5. नूतन जी, आपने कहानी के रूप में खुसरो की किताब खोलकर रख दी। अत्यंत रोचक, भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए आपको बधाई।

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  6. बहुत सुंदर आलेख नूतन जी, बचपन में पापा उनके दोहों , पहेलियों पर बात करते थे ,और ' मेरे बाबा को भेजो' पर भावुक हो जाते थे,तब लगता था कि मैं ख़ुसरो को बहुत करीब से जानती हूँ लेकिन आज इतने अलग विस्तार से पुनः उनको जानना एक अद्भुत अनुभव था..
    हार्दिक आभार आपका।

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  7. अति-उत्तम आलेख! ख़ुसरो की बहुमुखी प्रतिभा को सुंदरता से प्रस्तुत किया है नूतन जी आपने! हार्दिक आभार!

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  8. खुसरो दरिया प्रेम का...जो डूबे सो पार....आप पार कर गई...बहुत अच्छा लिखा आपने

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