बालमुकुंद गुप्त का नाम लेते ही शिवशंभु के ऐतिहासिक चिट्ठों की याद आती है, जिनकी वैचारिक प्रखरता और विशिष्ट तेवर ने उसे हिन्दी साहित्य की अमर कृति बना दिया। यह एक कृति ही हिन्दी निबंध के शीर्ष पुरुष के रूप में गुप्त जी की कीर्ति का स्थायी आधार है; लेकिन इस अद्वितीय रचना की छाया में बालमुकुंद गुप्त की रचनात्मकता के अन्य सशक्त आयाम धुंधला से गये। इस रचना के माध्यम से गुप्त जी ने किसी भी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में शासक और प्रजा के परस्पर संबंध के महत्वपूर्ण प्रश्न को उठाया है।
उनके निबंधों में अनेक ऐसे प्रसंग बिखरे पड़े हैं, जहाँ राजतंत्र में भी राज्य और प्रजा के बीच सौहार्द्र बना रहता है। वे शाइस्ताखाँ के नवाबी शासन का उदाहरण देते हैं, जहाँ कर वसूलने वाला शासन भी जनता के जीवन-संघर्ष की चिंता करता है। गुप्त जी अकबर बादशाह का जीवन चरित्र लिखते हुए विस्तार से बताते है कि भोजन सामग्री कितने दाम में मिलती थी। यह विवरण उनकी चिंता के प्रतीक हैं कि किस तरह अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का शोषण, महँगाई, जनता की बदहाली का ज़हर पसरा हुआ है l कर्ज़न के समय में ही फूट डालकर सत्ता कायम रखने की राजनीति शुरू हुई लेकिन उसके बावजूद बंगाल का विभाजन देश की एकजुटता, राष्ट्रवाद की भावना का स्रोत बन गया। इसके विरोध में जो प्रदर्शन हुए उनसे स्वाधीनता आंदोलन को एक नयी गति मिली। गुप्त जी ने लिखा- “यह बंग विच्छेद बंग का विच्छेद नहीं है बंग निवासी इससे विच्छिन्न नहीं हुए, वरंच और युक्त हो गए।’’ राष्ट्र और राज के प्रति निष्ठा के द्वंद्वपूर्ण सवाल को निर्मूल करते हुए बालमुकुंद गुप्त उपनिवेशवादी शासन को चुनौती देते हैं। सच्चे जन प्रतिनिधि बनकर वायसरॉय को उनका कर्तव्य याद दिलाते हुए शासन की जनता के प्रति जवाबदेही की माँग करते हैं। उस दौर में बालमुकुंद गुप्त ने अपनी प्रतिबद्धता की ख़ातिर यह जोख़िम उठाया।
बालमुकुंद गुप्त की पृष्ठभूमि:
ऐसे जीवट भरे रचनाकार का जन्म १८६५ में हरियाणा के रोहतक जिले में गुड़ियानी गाँव में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा बहुत औपचारिक या व्यवस्थित ढंग से नहीं हुई। लगभग १० वर्ष की आयु में सन १८७५ में उन्हें पढ़ने भेजा गया। यद्यपि वे एक व्यापारी परिवार से थे, फिर भी विद्याध्ययन में उनकी रुचि और कुशाग्रता का पता इस बात से चलता है कि पांँचवी कक्षा में उनका इम्तिहान लेने वाले असिस्टेंट इंस्पेक्टर साहब ने उनकी पढ़ाई जारी रखने का ज़बरदस्त अनुरोध करते हुए कहा कि ‘सूबा पंजाब में दस हजार लड़कों का इम्तिहान अब तक ले चुका हूँ , कोई लड़का इस ज़हानत और लियाकत का नहीं देखा’। इस अल्प आयु में ही उनकी मौलिक सोच, तर्क-क्षमता और विश्लेषण की शक्ति अद्वितीय थी। दुर्भाग्यवश उनकी पढ़ाई जारी न रह सकी। पिता के आकस्मिक निधन से परिवार की ज़िम्मेदारी उन पर आ गई। १८८० में ही उनका विवाह हो गया। कुछ वर्ष उन्होंने परिवार और व्यापार का दायित्व निष्ठापूर्वक निभाया लेकिन छोटे भाई के योग्य होने पर गुप्त जी ने स्वयं को इस दायित्व से मुक्त कर विद्याध्ययन, लेखन और संपादन को समर्पित किया।
शिक्षा और साहित्यिक यात्रा:
वे गुड़ियानी से दिल्ली आ गए और मिडिल की परीक्षा पास की। उस समय की उनकी आयु लगभग २१ वर्ष की रही होगी। औपचारिक शिक्षा यहीं तक हुई लेकिन स्वाध्याय के बल पर उन्होंने हिंदी, उर्दू और बांग्ला का ज्ञान अर्जित किया। उन्होंने राजा राममोहन राय की जीवनी, योगेशचंद्र बसु के बांग्ला उपन्यास ‘मेडल भगिनी’, हर्षवर्धन के संस्कृत नाटक ‘रत्नावली’ का हिन्दी रूपांतरण किया; फिर रंगलाल मुखोपाध्याय द्वारा लिखित पुस्तक ‘हरिदास’ का पहले उर्दू में, फिर हिंदी में रूपांतरण किया। ‘सती प्रताप’ नामक नाटक का हिंदी से उर्दू में अनुवाद करने का भी उल्लेख मिलता है। भाषाओं के प्रति उनके लगाव के कारण उन्होंने अंग्रेज़ों का घोर विरोध करते हुए भी अंग्रेज़ी सीखी। पंडित श्रीधर पाठक ने इस कार्य में उनकी सहायता की। गुप्तजी उनसे अंग्रेज़ी सीखते हैं और उन्हें उर्दू सिखाते हैं। यह सारा सिलसिला आपसी पत्र व्यवहार से भी चलता रहा।
हिंदी पत्रकारिता और संपादक की भूमिका:
गुप्त जी का समय नवजागरण का समय था। सामाजिक क्षेत्र में आधुनिक विचारों की रोशनी रूढ़िबद्ध अँधेरों को चुनौती दे रही थी। इस दौर के साहित्यिक माहौल में हिंदी और उर्दू के बीच भाषा का ऐसा आदर्श स्थापित करने की ललक थी जो आम आदमी की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। बालमुकुंद गुप्त ने इस सबके बीच अंग्रेज़ों के उपनिवेशवादी शासन के कुचक्र को बेधने का बीड़ा उठाया। इस अभियान में पत्रकारिता उनका सबसे बड़ा अस्त्र बनी। उन्होंने १८८५ में ही लिखना प्रारंभ कर दिया था। अपने मित्र पंडित दीनदयाल शर्मा द्वारा संपादित एवं प्रकाशित पत्र ‘मथुरा अखबार’ में वे नियमित रूप से लिखते थे। सन् १८८६ में वे ‘अखबारे चुनार’ के संपादक बने और फिर १८८८-१८८९ में लाहौर से निकलने वाले सप्ताहिक पत्र ‘कोहेनूर’ के संपादन का पदभार ग्रहण किया।
गुप्त जी की संपादन कला व उनकी विशिष्ट भाषा से लैस ‘अखबारे चुनार’ थोड़े समय में ही अपने क्षेत्र का एक प्रतिष्ठित पत्र बन गया। ‘कोहेनूर’ भी उनके संपादन में ही साप्ताहिक से दैनिक बना। ‘कोहेनूर’ की विशिष्टता इस बात में भी थी कि तद्युगीन उर्दू पत्रकारों और प्रकाशकों को यहीं प्रशिक्षण मिला। यहाँ अर्जित ज्ञान और प्रेरणा के बल पर आगे चलकर उन्होंने अपने छापेखाने खोले या अख़बार निकाले। इस अर्थ में ‘कोहेनूर’ उस युग की पत्रकारिता की उर्वर जन्मस्थली बना। इन दो पत्रों के अतिरिक्त जिन उर्दू पत्रों में गुप्त जी की रचनाएँ प्रकाशित होती रहीं, उनमें प्रमुख थे- ‘अवध पंच’, ‘भारत प्रताप’ और ‘ज़माना’।
पंडित मदन मोहन मालवीय की प्रेरणा से गुप्त जी हिंदी पत्रकारिता की ओर मुड़े। सन् १८८९ के अंतिम दिनों में मालवीय जी के संपादन में कालांकार से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘हिंदोस्थान’ के संपादकीय विभाग में सम्मिलित हो गए। उन दिनों ‘हिंदोस्थान’ में ब्रजभाषा और खड़ीबोली को लेकर खूब विवाद चल रहा था। गुप्तजी ने भाषा के व्यवहारिक रूप का समर्थन किया। सरकार के विरुद्ध कड़ी टिप्पणियाँ लिखने के कारण उन्हें पत्र से अलग होना पड़ा। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में यह पहला मौका था जब किसी लेखक को शासन के ख़िलाफ लिखने के कारण पत्र से अलग कर दिया गया हो। इन सबसे वे ज़रा भी विचलित नहीं हुए। सन् १८९३ में वे अमृतलाल चक्रवर्ती की प्रधानता में ‘हिंदी बंगवासी’ के सहकारी संपादक नियुक्त हुए और फिर १८९९ में ‘भारतमित्र’ का संपादन करते हुए उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र की पराकाष्ठा को प्राप्त किया। उनका शासन-विरोधी तेवर और भी तीखा होता गया। गुप्त जी ने देशानुराग से ऊर्जस्वित जिस साहसपूर्ण निर्भीकता का परिचय दिया वह आज भी स्पृहणीय है।
१८ सितंबर, सन् १९०७ को ४२ वर्ष की अल्पायु में बालमुकुंद गुप्त का स्वर्गवास हो गया। उन्होंने अपने लेखन से पत्रकारिता, भाषा और देशभक्ति के नए मानदंड स्थापित किए।
लगभग बीस वर्ष की अवधि में बालमुकुंद गुप्त ने उर्दू-हिन्दी के जो पत्र लिखे; वे उपलब्ध नहीं हैं। उनके पुत्र नवलकिशोर गुप्त की सहायता से बालमुकुंद गुप्त स्मारक ग्रंथ प्रकाशन समिति बनी। पं. झाबरमल्ल शर्मा तथा बनारसीदास चतुर्वेदी के संपादन में ‘बालमुकुंद गुप्त निबंधवाली’ तथा ‘बालमुकुंद गुप्त स्मारक ग्रंथ’ का प्रकाशन हुआ। बालमुकुंद गुप्त निबंधावली में शिवशंभु के चिट्ठे के अतिरिक्त उनके द्वारा लिखे जीवन चरित्र, राष्ट्रभाषा और लिपि संबंधी उनके विचार, हिन्दी-उर्दू के अख़बारों का इतिहास, पं.महावीर प्रसाद दिवेदी से भाषा और व्याकरण को लेकर चले उनके ऐतिहासिक विवाद तथा उनकी स्फुट कविताओं का भी परिचय मिलता है।
‘बालमुकुंद गुप्त स्मारक ग्रंथ’ में भी गुप्त जी की साहित्य साधना से साक्षात्कार होता है। यह ग्रंथ प्रधानतः उनकी स्मृति को समर्पित है। इसमें उनपर लिखे संस्मरण व श्रद्धांजलियाँ ली गई हैं लेकिन जो पृष्ठ उनके जीवन परिचय से संबंधित हैं, उनमें उनकी साहित्य सेवाओं का आकलन करते हुए उनके लिखे तथा प्राप्त कुछ ऐसे पत्र संकलित हैं जिनसे उस युग की साहित्यिक गतिशीलता का पता चलता है। उसमें ही बीच-बीच में उनके लिखे ऐसे लेख भी हैं जो निबंधावली में तो नहीं लिए जा सके लेकिन यहाँ संदर्भों को स्पष्ट करने के लिए उद्धृत किए गए हैं। इसी तरह से कुछ अग्रंथित निबंध ‘बालमुकुंद गुप्त: एक मूल्यांकन’ में भी मिलते हैं, जिसका संपादन कल्याणमल लोढ़ा तथा विष्णुकांत शास्त्री ने किया था। यह पुस्तक बाबू बालमुकुंद गुप्त शतवर्षीय समारोह समिति, कलकत्ता द्वारा सं १९६५ में प्रकाशित की गई थी।
गुप्त जी के कुछ लेख जो ‘भारतमित्र’ में छपे थे, उन्हें अलग-से पुस्तकाकार रूप में भी प्रकाशित किया गया। जैसे ‘शिवशंभू के चिट्ठे’ के विषय में भी यह जानकारी महत्वपूर्ण है कि १९०३ से १९०५ के बीच भारतमित्र में प्रकाशित शिवशंभू द्वारा लॉर्ड कर्जन के नाम लिखे चिट्ठे सन् १९०६ में पुस्तकाकार रूप में छापे गए और भारतमित्र पत्र के साथ उपहार स्वरूप दिए गए। इसका उल्लेख ‘चिट्ठे और ख़त’ में छपी सूचना में मिलता है। ये चिट्ठे अंग्रेज़ी में भी अनूदित हुए और अंग्रेज़ों ने भी इसे बड़े चाव से पढ़ा।
गुप्तजी ने एक बालोपयोगी पुस्तक ‘खिलौना’ भी लिखी जिसमें लेखक का नाम रसिकलाल दत्त दिया गया। उस समय में छद्मनाम का कुछ चलन भी था और कुछ मजबूरी भी। लॉर्ड कर्जन के नाम लिखे चिट्ठों के लेखक का गुप्त रहना युग के शासकीय आतंक का सूचक है तो द्विवेदी जी द्वारा लिखे गए लेख ‘भाषा और व्याकरण’ की प्रत्यालोचना ‘आत्माराम’ के नाम से लिखी गई। तर्क था- “आप सज्जनों को आत्माराम से क्या मतलब है, उसके लेख हाज़िर हैं।”
बालमुकुंद गुप्त पराधीन भारत की वेदना के सक्षम प्रवक्ता और भारतीय समाज की कमियों के कटु आलोचक ही नहीं थे, वरन उन्होंने अपनी खास शैली में साहित्य और भाषा की तत्कालीन समस्याओं पर भी बेलाग विचार व्यक्त किए। गुप्त जी ने साधारण बोलचाल की भाषा अपनाई। हिन्दी-उर्दू के शब्दों के साथ इस भाषा में खुलापन और लचक थी। उसमें संस्कृतनिष्ठ हिन्दी और अरबीनिष्ठ उर्दू दोनों से बचने की कोशिश रही। उनकी भाषा, लक्षणा-व्यंजना की शक्ति तथा अनूठे प्रतीकों द्वारा गढ़ी गई बेमिसाल भाषा का उदाहरण है। जिसे ठेठ हिन्दी का ठाट कहते हैं, वह गुप्त जी के लेखन में पंक्ति-दर-पंक्ति दिखाई देता है। गुप्त जी ने व्यंग्य का इस्तेमाल एक नुकीले अस्त्र की तरह किया है। उनके व्यंग्य में असहायता की चीख नहीं, सकर्मक चेतना का उद्घोष है।
डॉ रेखा सेठी, साहित्यविज्ञ, सुप्रसिद्ध अनुवादक
एसोसिएट प्रोफेसर
इन्द्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय
फ़ोन: +९१ ९८१०९८५७५९
बिरले थे बालमुकुंद जी, बिरले ही मिलता है उन पर लिखा पढ़ पाना, साधुवाद रेखा जी
ReplyDeleteउत्तम लेखन,बालमुकुंदजी के बारे में सटीक जानकारी
ReplyDeleteठेठ हिंदी के ठाट में भारतीय समाज, समकालिक मुद्दों, और किसी भी विषय पर अपने विचार बेबाक़ प्रस्तुत करने वाले बालमुकुंद गुप्त जी से इतना आत्मीय परिचय कराने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया और बधाई, रेखा सेठी जी। जानकारी तो बहुमूल्य मिली ही, आनंद भी बहुत आया आपका लेख पढ़कर।
ReplyDeleteरेखा जी, बालमुकुंद गुप्त जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचय कराने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। सारगर्भित अत्यन्त रोचक आलेख के लिए आपको बधाई। बहुत मज़ा आया पढ़ने में।
ReplyDeleteरेखा जी के शोध एवं परिश्रम का परिणाम है कि बालमुकुंद गुप्त जी पर बहुत रोचक लेख बना है। रेखा जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteकितना सुगठित, रोचक, जानकारी पूर्ण और भाषा की विशिष्टता और समकालीन इतिहास की जानकारी देने वाला लेख आपने लिखा है रेखा जी। बालमुकुंद जी का पूरा जीवन, साहित्यिक यात्रा और दर्शन आँखों के सामने एक चलचित्र बनकर उभर आया आपके शब्दों में 🙏
ReplyDeleteसोमा
बालमुकुंद जी जैसे जीवट साहित्यकार से परिचय कराने और उनके बारे में विस्तृत जानकारी देने के लिए बहुत आभार
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