विद्यापति: संक्षिप्त परिचय |
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जन्म/मृत्यु |
१३५२-१४४४/१३८०-१४६० |
जन्मभूमि |
विस्पी, मधुबनी (बिहार) |
पिता |
श्री गणपति ठाकुर |
माता |
श्रीमती हंसिनी देवी |
भाषाज्ञान |
संस्कृत, मैथिली, अवहट्ट |
विषय |
श्रृंगार एवं भक्ति रस |
उपाधि |
महाकवि मैथिल कोकिल |
कृतियाँ |
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अवहट्ट |
कीर्तिकला, कीर्तिपताका |
संस्कृत |
भू-परिक्रमा, पुरुष परीक्षा, लिखनावली, दुर्गाभक्तितरंगिनी, विभागसार, शैवसर्वस्वसार, शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत, पुराण-संग्रह (विद्यापति-संस्कृत-ग्रन्थावली), दानवाक्यावली, गंगावाक्यावली, गयापत्तलक, वर्षकृत्य, मणिमञ्जरी नाटक |
मैथिली |
पदावली |
ते तैसन जम्पओ अवहटट्ठा । ।
तत्पश्चात, विद्यापति ने कीर्ति सिंह के उत्तराधिकारी देवसिंह के दरबार में एक स्थान हासिल कर गद्य कहानी-संग्रह भू-परिक्रमण की रचना की। देवसिंह के उत्तराधिकारी शिवसिंह के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता थी और यहीं से उन्होंने प्रेम गीतों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। उन्होंने मुख्य रूप से १३८० और १४०६ के बीच लगभग पाँच सौ प्रेम गीत लिखे। उस अवधि के बाद उन्होंने जिन गीतों की रचना की; वे शिव, विष्णु, दुर्गा और गंगा की भक्तिपूर्ण स्तुति थे। व्यक्तिगत जीवन में उनकी दो पत्नियाँ, तीन बेटे और चार बेटियाँ थीं।
महाकवि विद्यापति का रचना संसार वृहत और बहुआयामी है। संस्कृत, अवहट्ट तथा मैथिली के अतिरिक्त उन्हें और भी कई भाषाओं और उपभाषाओं का ज्ञान था। विद्यापति के समय की भाषा प्राकृत से पूर्वी भाषाओं जैसे मैथिली और भोजपुरी के शुरुआती संस्करणों में परिवर्तित होनी शुरू हो गई थी। इन भाषाओं को बनाने पर विद्यापति के प्रभाव को इटली में दांते और इंग्लैंड में चासर के समान माना जाता है। उन्हें "बंगाली साहित्य का जनक" भी कहा जाता है। शास्त्र और लोक दोनों ही संसार में उनका असाधारण अधिकार था। कर्मकाण्ड हो या धर्म, दर्शन हो या न्याय, सौन्दर्यशास्त्र हो या भक्ति-रचना, विरह-व्यथा हो या अभिसार, राजा का कृतित्व गान हो या सामान्य जनता के लिए गया में पिण्डदान, सभी क्षेत्रों में विद्यापति अपनी कालजयी रचनाओं के लिए प्रख्यात हैं।
वे आदिकाल और भक्ति काल के संधि कवि कहे जा सकते हैं। उनकी कीर्तिकला और कीर्तिपताका जैसी रचनाओं पर दरबारी संस्कृति और अपभ्रंश काव्य परम्परा का प्रभाव है, तो उनकी पदावली के गीतों में भक्ति और शृंगार की गूँज है। पदावली ही उनके यश का मुख्य आधार है। वे हिन्दी साहित्य के मध्यकाल के पहले ऐसे कवि हैं, जिनकी पदावली में, लोकभाषा में लोकसंस्कृति की अभिव्यक्ति हुई है। जिस तरह कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र’ और मार्क्स ने 'दास कैपिटल’ लिखा, उसी तरह विद्यापति ने 'पुरुष परीक्षा’ लिखी, जिसमें लोकाचरण [पुरुष (मनुष्य) कैसा होना चाहिए] और उसकी कसौटी निर्धारित की गई है। ‘मणिमञ्जरी’ और ‘गोरक्षविजय’ जैसे बेहतरीन नाटकों की रचना कर उन्होंने अपने नाटककार रूप से भी लोगों का परिचय कराया।
संस्कृत में
- भू-परिक्रमा (विद्यापति ने इसे राजा देव सिंह की आज्ञा से लिखा। इसमें बलराम से संबंधित शाप की कहानियों के बहाने मिथिला के प्रमुख तीर्थ-स्थलों का वर्णन है।)
- पुरुषपरीक्षा (यह ज्योतिष शास्त्र से संबंधित रचना है; जिसमें कामशास्त्र, नीति शास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र तीनों का समन्वय हुआ है)
- लिखनावली ( इसमें ‘देश का शासन तंत्र व राजा कैसा होना चाहिए’ के विषय में लिखा गया है।)
- दुर्गाभक्तितरंगिणी (यह विद्यापति के पिता गणपति ठाकुर की अधूरी रचना है, जिसे विद्यापति ने पूर्ण किया।)
- गोरक्षविजय नाटक (इसमें संस्कृत तथा मैथिली दोनों भाषाओं का प्रयोग हुआ है। मिश्र बंधुओं ने इसी रचना के आधार पर विद्यापति को हिन्दी का पहला नाटककार कहा है।)
अवहट्ठ में
- कीर्तिलता (विद्यापति की प्रथम रचना)
- कीर्तिपताका
मैथिली में
- पदावली (विद्यापति की ख्याति का आधारभूत ग्रंथ यही गीतकाव्य है। इसमें भक्ति और शृंगार दोनों रसों का समागम है। निराला ने इसे ‘नागिन की मादक लहर’ कहा है।)
विद्यापति शिव और शक्ति दोनों के भक्त थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में दुर्गा, काली, भैरवी, गंगा, गौरी आदि को शक्ति के रूप में वर्णित किया है। साथ ही राधा-कृष्ण की लीलाओं को शृंगार रस से ओत-प्रोत कर कालजयी रचनाएँ की हैं।
विद्यापति की प्रासंगिकता
अलग-अलग विद्वानों व रचनाकारों ने विद्यापति को अलग-अलग रूपों में देखा है। जार्ज ग्रियर्सन, जो १८८२ के आसपास मधुबनी के एसडीएम थे, ने विद्यापति को एक रहस्यमयी कवि बताया है। वहीं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामकुमार वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, डॉ. बच्चन सिंह, हरप्रसाद शास्त्री सरीखे विद्वानों ने उन्हें शृंगारी कवि माना है। डॉ. बच्चन सिंह के अनुसार, “विद्यापति को भक्ति कवि कहना उतना ही मुश्किल है, जितना खजुराहो के मंदिरों को आध्यात्मिक कहना।” हरप्रसाद शास्त्री ने विद्यापति को पंचदेवोपासक माना है। वहीं हजारी प्रसाद द्विवेदी, चैतन्य महाप्रभु तथा श्यामसुंदर दास, विद्यापति को भक्ति कवि के रूप में देखते हैं।
डॉ. श्यामसुंदर दास विद्यापति को हिन्दी के वैष्णव साहित्य का प्रथम कवि बताते हुए कहते हैं कि उनकी रचनाएँ राधा-कृष्ण के पवित्र प्रेम से ओत-प्रोत हैं।
विद्यापति की प्रासंगिकता के सवाल पर मगध महिला कॉलेज (पटना) की मैथिली विभाग की अध्यक्ष डॉ. अरुणा चौधरी कहती हैं, "विद्यापति की भाषा आम, सहज, सरल होने के साथ गेय धर्मिता वाली है। इसमें राग-लाय-ताल सब है। उनका लिखा गीत 'जय-जय भैरवी असुर भयाउनी' के बिना शायद ही मिथिला का कोई आयोजन या समारोह होता है। आज भी मिथिला में देवी वंदना, शादी-विवाह, पर्व-त्योहार या मधुश्रावणी के पावन अवसरों पर विद्यापति के गीत ही प्रमुखता से गाये जाते हैं।"
अजीत आज़ाद कहते हैं, “विद्यापति ने सिर्फ शृंगार और भक्ति रस की रचनाएँ ही नहीं लिखीं, उनकी लेखनी में जीवन का मर्म और सार भी है।“
विद्यापति की उपाधियाँ
विद्यापति की विद्वता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि अपने जीवनकाल में उन्हें अनेक उपाधियों से सम्मानित किया गया। उनके पदों में गेयता और मधुरता का संगम है, इसलिए उन्हें “मैथिल कोकिल (कोयल)” कहकर संबोधित किया गया। राजा शिवसिंह ने उन्हें “अभिनव जयदेव” की उपाधि दी थी। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने उनके काव्य की प्रशंसा में कहा था, “गीत गोविंद के रचनाकार जयदेव की मधुर पदावली पढ़कर जैसा अनुभव होता है, वैसा ही विद्यापति की पदावली पढ़कर।” इसके अतिरिक्त उन्हें ‘लेखन कवि’, ‘खेलन कवि’, ‘वयः संधि के कवि’, ‘दशावधान’ तथा ‘कवि कंठहार’ आदि उपाधियों से भी सम्मानित किया गया।
विद्यापति धाम
विद्यापति की मृत्यु के विषय में एक किवदंती है कि अपने अंतिम क्षणों में उन्होंने गंगा तट पर प्राण त्यागने की इच्छा प्रकट की थी। उनके पुत्रों ने उन्हें अपने गाँव विस्पी से पालकी में बिठाकर गंगा तक लाने का जतन किया, किंतु समस्तीपुर के पास पहुँचकर उन्होंने आगे चलने की असमर्थता जताते हुए वहीं रुकने का आग्रह किया। गंगा अभी भी पौने दो कोस दूर थी, किंतु विद्यापति ने आत्मविश्वास से कहा, "यदि जीवन के अंतिम क्षण में एक बेटा अपनी माँ को देखने के लिए इतनी दूर से आ रहा है, तो क्या गंगा माँ अपने बेटे से मिलने के लिए मात्र पौने दो कोस नहीं आ सकती है? गंगा आएगी और जरूर आएगी।“ यह कहते हुए वे ध्यान में बैठ गए। बीस मिनट के भीतर गंगा अपनी बढ़ती धारा के प्रवाह के साथ वहाँ पहुँच गई। विद्यापति की इस निष्ठा ने उन्हें देवतुल्य बना दिया था। तभी से वह स्थान विद्यापतिनगर/विद्यापतिधाम के नाम से प्रसिद्ध है। आज भी कार्तिक त्रयोदशी, उनकी पुण्यतिथि, को देश भर में विद्यापति पर्व के रूप में मनाया जाता है।
सन्दर्भ:
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A4%BF
- https://ncert.nic.in/textbook/pdf/lhat109.pdf
- https://hindishri.com/vidyapati/
- https://www.jagran.com/bihar/patna-city-zest-of-life-can-be-found-in-the-literature-of-mahakavi-vidyapati-18665394.html
- https://samastipur.nic.in/hi/tourist
- https://sanmarg.in/ticker(चित्र)
लेखक परिचय
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मैथिल कोकिल विद्यापति जी के कृतित्व को समर्पित सुंदर आलेख। दीपा लाभ और अर्विना गहलोत जी को साधुवाद और शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteमहाकवि विद्यापति जी के साहित्यिक योगदान को वर्णित करता रोचक लेख है। दीपा जी एवं अर्विना जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteदीपा मैं विद्यापति पर आलेख पढ़ने को बहुत उत्सुक थी। प्रचीन लेखकों को लेकर इतनी सारी contradictory सामग्री मिलती है, कि इतना स्पष्ट लेख निकाल लाना ही बहुत बड़ा काम है। उस पर तुमने प्रवाह और रोचकता बराबर बनाए रखी। साधुवाद 🙏🏻🌼
ReplyDeleteविद्यापति की शिवभक्ति, उगना के साथ उनकी कथाएँ, उनके मैथिली गीत बचपन में बहुत सुने! आज उनका साहित्यकार का वृत देख मन प्रसन्न हो गया!
विद्यापति - मैथिल कोकिल, कवि कंठहार, जिनसे रवीन्द्रनाथ टैगोर समेत कितने ही लेखकों ने प्रेरणा पाई! लोक संस्कृति के वाहक, शिव उपासक, आदिकाल और भक्ति काल के इस अनूठे संधिकवि को हम आज साहित्यकार तिथिवार में प्रणाम कर रहे हैं, मिथिला में रची-बसी दीपा लाभ जी की कलम से! ये वो गाथाएँ हैं जिनसे हमारा पटल समृद्ध होता है!
ReplyDeleteलेख को पढ़कर लगता है कि शोध पर बहुत मेहनत की गई है । तथ्यात्मक होते हुए भी रोचक विवरण है । विद्यापति के बारे में काफ़ी जानकारी प्राप्त हुई । दीपा जी एवं अर्विना जी को इस सुंदर लेख के लिए बधाई ।
ReplyDeleteजिनके बारे में कम पढने को मिलता है, उनके बारे में अधिक पढ पाना हमेशा ही अच्छा लगता है..
ReplyDeleteविद्यापति के कुछ गीत ही कभी सुने थे, उनके जीवन और साहित्य के बारे में इस लेख से बहुत जानकारी प्राप्त हुई और उनके प्रति रुचि बढ़ी। उत्तम लेखन के लिए दीपा जी और अर्विना जी को बहुत बधाई।
ReplyDeleteबाबा विद्यापति पर इतना सुंदर आलेख लिखने के लिए बधाई साथ ही मैथिल और मैथिलीअनुरागिनी होने के नाते हार्दिक आभार देती हूँ।
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