“ये भारी-भरकम पोथे, कबीरा जाने कितने थोथे।
ये धरम-करम के पथ सारे, मल-कीचड़ के ही गलियारे।
ये तीरथ-बरत के धाम, जिनसे अल्लाह बचाये राम।
यह भाग-भरम की शोभा, तोबा रे बापू तोबा।
ये ऊँच-नीच की बातें, अनन्त कजियारी रातें।
ये राव-रंक के जाले, सरासर झूठे और काले।
सूरज उगने पर ही मिटती रात, दिशा-दिशा में स्वर्णिम प्रभात।
तो वक्त के मुताबिक यह बात बरसों पुरानी है कि हरियाली के बीच और हवा के झूले पर एक गाँव बसा हुआ था। ”
ऐसी दमदार शुरुआत है, राजस्थानी लोक-साहित्य और संस्कृति के विकासकर्त्ता, लोक और आधुनिक साहित्य के पुल निर्माता, भारत के प्रसिद्ध साहित्यकार विजयदान देथा उर्फ़ बिज्जी की एक कहानी ‘दूजौ कबीर' की। इन्होंने राजस्थानी और हिन्दी में लिखा है। मात्र चार वर्ष की आयु में इनके सिर से पिता का साया उठ गया। लेखन इन्हें दादा जुगतिदान देथा और पिता सबलदान देथा से विरासत में मिला था; दोनों चारण-शैली के कवि थे। बिज्जी शरतचंद्र, अंतोन चेखव और रवीन्द्रनाथ टैगोर को अपना गुरु मानते थे। हमें इनके लेखन में इनके गुरुओं की रचनाओं की छाप नहीं दिखती, क्योंकि इनका गुरुओं से सीखने का ढंग निराला था। इन्होंने कभी भी उनकी प्रकाशित रचनाओं का अनुकरण नहीं किया और इस बात पर विशेष ध्यान दिया कि उन्होंने रचनाओं तक का सफ़र तय कैसे किया है?
बिज्जी ने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, बाल-साहित्य आदि कई विधाओं में लिखा है, लेकिन ख्याति उन्हें कहानियों से मिली। लेखन-यात्रा की शुरुआत हिन्दी से हुई। कॉलेज के समय से (१९४८) जोधपुर के साप्ताहिक ‘ज्वाला' के लिए तीन स्तंभ कई वर्षों तक नियमित रूप से लिखे तथा कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ सहयोग और संपादन कार्य भी किया। १९५८ में बिज्जी का हिंदी के बजाय राजस्थानी में लिखने का निर्णय इनके लेखन-जीवन में एक बड़ा मोड़ था। तब तक १३०० कविताएँ और ३०० कहानियाँ हिन्दी में लिख चुके थे। इन्होंने अपनी पुस्तक ‘सपनप्रिया' की भूमिका में लिखा है- “राजस्थानी में लिखे बिना मेरी कहानियाँ आकांक्षित ऊँचाइयों तक नहीं उड़ सकतीं।" उन्हें मातृभाषा में लिखने की प्रेरणा रूसी-साहित्य से मिली; जिसे उन्होंने बहुत पढ़ा था।
बिज्जी कहानियों के लिए सामग्री ढूँढने के उद्देश्य से गाँवों में गड़रियों, किसानों और अन्य लोगों के साथ गप-शप करते; ऐसे स्थानों-समारोहों में जाते, जहाँ महिलाएँ इकट्ठा होतीं; उनके साथ बातें करते और गीत सुनते। उनका कहना था कि पुरुष तो शादी के बाद अपना घर छोड़ते नहीं, किन्तु महिलाएँ अपना मायका छोड़कर अन्य गाँव (ससुराल) चली जाती हैं। इस प्रकार एक ही जगह पर अनेक गाँवों में प्रचलित भिन्न-भिन्न लोक-कथाएँ उपलब्ध हो जाती हैं। बिज्जी उनकी बातों और गीतों से चिंगारी लेकर जादुई लोक-कथाएँ गढ़ने में माहिर सिद्ध हुए। उन्होंने अपने गाँव बोरूंदा में राजस्थानी लोक-कथाओं ‘बातां री फुलवाड़ी' यानी बातों की बगिया का १९६२ में पहला और १९८१ में चौदहवाँ भाग प्रकाशित किया। इसके बाद बिज्जी ने अपनी ही लिखी लोक-कथाओं का हिन्दी में पुनः सृजन किया।
आंचलिक लेखक बिज्जी का जीवन संघर्षमय रहा है। आर्थिक कठिनाइयों के चलते उन्हें बोरूंदा की प्रेस बेचनी पड़ी। साहित्य के रास्ते में भी कठिनाइयाँ कम नहीं थी। भारतीय साहित्यकारों से तरह-तरह की आलोचनाएँ सुनने को मिली। यहाँ तक कि कुछ लेखकों ने तो यह तर्क पेश किया कि राजस्थानी में लिखने और राजस्थानी से हिन्दी में अनुवाद करने वाला हिन्दी का साहित्यकार कैसे हो सकता है? लेकिन बिज्जी अपनी राह पर डटे रहे। अपनी ही रची लोक-कथाओं को परिष्कृत और संशोधित करके, उन्हें नया रूप प्रदान करके उनका पुनर्सृजन किया। दूसरे शब्दों में कहें तो ये कहानियाँ मूल रचना के आगे की रचनाएँ हैं। बिज्जी ने ‘सपनप्रिया' की भूमिका में लिखा है - “कथानक वे ही हैं, पर हिन्दी कहानी के आयाम बदल जाते हैं; इसलिए कि मैं निरंतर बदलता रहता हूँ। कहूँ कि परिष्कृत और संशोधित होता रहता हूँ। जीवित गाछ-बिरछों के उनमान प्रस्फुटित होता रहता हूँ, सघन होता रहता हूँ।" बिज्जी ने अपनी कृतियों का राजस्थानी से हिन्दी में अनुवाद नहीं किया। उनके बेटे कैलाश और महेन्द्रदान देथा ने अपने पिता की अनेक रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद किया है। बिज्जी की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि वे लोक-कथा की आत्मा को जीवित रखते हुए कहानी का सृजन ऐसे करते हैं, कि साधारण पाठक भी उसका आनन्द उठा सकता है।
लेखक का प्रकृति-वर्णन तो अवर्णनीय है; उदाहरण के लिए पेश है कहानी ‘उलझन' का एक अंश -“झिलमिलाता झीना साँवला जामा पहने घेर-घुमेर दरख़्त अपनी-अपनी ठौर अविचल खड़े थे। चौतरफा छाये उस अथाह अँधियारे को अपने अंतस में उतार रही थी, कि सहसा आकाश की कोख फाड़कर गुलाल का एक पिण्ड बाहर आता दिखा। साँवले लिबास में हलका उजाला घुलने लगा ! बात-की-बात में गुलाल के उस पिण्ड की रंगत सुनहरी हो गयी। इतने दिन यही कुदरत थी और ये ही आँखे थी, मग़र कहीं कुछ नज़र नहीं आता था।" प्रकृति की अप्रतिम सुन्दरता का यह वर्णन पढ़कर मुझे एक अद्भुत मन्त्र-मुग्धता का अहसास हुआ।
बिज्जी ने अपनी कहानियों में ग़रीबी, भुखमरी, अभाव, शोषण, हिंसा तथा सामाजिक जीवन में व्याप्त दूसरी समस्याओं का बड़ा मार्मिक और यथार्थ चित्रण किया है। शोषित, उपेक्षित और पिछड़े वर्ग को अपने लेखन में महत्त्व दिया है। उदाहरण स्वरूप कहानी ‘बैण्डमास्टर’ में कहानी का मुख्य पात्र इब्राहिम शादी-ब्याह में बैण्ड बजाने का काम करता है। एक बार वह सेठ के बेटे की शादी में बैण्ड बजाने नगर-हवेली जाता है। काम ख़त्म होने के बहुत देर बाद भी बाजे वालों को खाने के लिए नहीं बुलाने पर इब्राहिम द्वारा इसकी याद दिलाने पर सेठ उसका तिरस्कार करता है। इब्राहिम बिना पैसे लिए भूखा घर लौटता है और रोटी बनाना चाहता है- “इब्राहिम ने पीपा नीचे उतारा तो एकदम हल्का ! . . . उसके हाथों का जैसे सत ही निकल गया हो। भरा हुआ पीपा कितना हल्का होता है और खाली पीपा कितना भारी। बड़ी मुश्किल से खाली कनस्तर पट्टी पर रखा।" भरा हुआ पीपा कितना हल्का होता है और खाली पीपा कितना भारी : इस पंक्ति ने मेरे दिल को झकझोर दिया, इसमें विजयदान देथा ने इब्राहिम की गरीबी और मजबूरी का कितना मार्मिक और यथार्थ वर्णन किया है!
फिल्म और सीरियल निर्माता, नाट्य-निर्देशक आदि बिज्जी के मौलिक लेखन से बहुत प्रभावित हुए। फ़िल्में ‘दुविधा', ‘पहेली', ‘परिणति' और ‘कांचली,तथा टीवी सीरियल ‘चरनदास चोर' बहुत लोगों ने देखे हैं; लेकिन बहुत कम लोगों को यह मालूम है, कि ये बिज्जी की रचनाओं पर आधारित हैं। इनकी कहानियों पर अनेक लघु-फ़िल्में भी बनी हैं। पत्रकार (इंडिया टुडे की फीचर एडिटर) मनीषा पांडेय द्वारा फिल्म अभिनेता-निर्देशक अमोल पालेकर से यह पूछे जाने पर कि आपने अपनी फिल्म ‘पहेली' के लिए बिज्जी की ही कहानी क्यों चुनी ? उन्होंने कहा- “मुझे कोई दूसरी कहानी बताइये, जिसमें इतना रहस्य, रोमांच और रोमांस हो; और साथ ही देशज भी हो। ”
बिज्जी ने डॉक्टर कोमल कोठारी द्वारा १९६० में स्थापित सांस्कृतिक केंद्र ‘रूपायन संस्थान' के तहत लोक-साहित्य को अन्तरराष्ट्रीय मंच पर लाने का उल्लेखनीय कार्य किया। ग्रामीण अंचल से जुड़े बिज्जी ने लोक-साहित्य, संस्कृति की खूब सेवा की तथा राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने के लिए पूरा जीवन कोशिश की। हिन्दी भाषा के विकास के संबंध में उनका कहना था- “...देश की सभी मातृभाषाओं का विकास होने से ही हिन्दी विकसित होगी। उसका शब्द भंडार दिन-दूना, रात-चौगुना बढ़ेगा। उनका विकास अवरुद्ध हुआ तो हिन्दी का विकास पहले अवरुद्ध होगा।”
बिज्जी के जीवन के अंतिम वर्ष में राजस्थानी और हिन्दी के एक दूसरे लेखक मालचंद तिवारी ने बोरूंदा में उनके घर में रहकर डायरी लिखी थी, जो ‘बोरूंदा डायरी' के नाम से छपी है। मालचंद तिवारी ने लिखा है- “एक दिन अचानक बिज्जी बोले, मृत्यु तो जीवन का शृंगार है। ये न हो तो कैसे काम चले ? सोच,मेरे सारे पुरखे आज ज़िंदा होते तो क्या होता ?” बिज्जी को जीवन में सबसे अधिक पसंद था- पढ़ना। एक इंटरव्यू में कहतें हैं- “यह निश्चित है कि मेरे अस्तित्व का अर्थ है - लिखना-पढ़ना। यही मेरा धर्म है, ईश्वर है – यही जीवन है। जिस क्षण पूरी तरह से यह तय हो जाएगा कि मुझसे अब पढ़ा-लिखा नहीं जाएगा – तब मेरे जीवन की सार्थकता नहीं रहेगी।”
विजयदान देथा जैसा कोई दूसरा साहित्यकार नहीं है। उनकी कृतियाँ हिन्दी और विश्व-साहित्य की अमूल्य निधि है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद भारतीय उप-महाद्वीप में एकमात्र लेखक हैं, विजयदान देथा; जिन्हें २०११ में नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया। यह इन्हें विशेष साहित्यकारों की श्रेणी में शामिल करता है।
सन्दर्भ-
१. छब्बीस कहानियाँ, विजयदान देथा, वाणी प्रकाशन, पृ-१७९
२. सपनप्रिया, विजयदान देथा, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ-१०
३. सपनप्रिया, विजयदान देथा, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ-१०
४. छब्बीस कहानियाँ, विजयदान देथा, वाणी प्रकाशन, पृ-२०५
५. छब्बीस कहानियाँ, विजयदान देथा, वाणी प्रकाशन, पृ-२०
६. बिज्जी का यादगार साक्षात्कार इंडिया टुडे की मनीषा पांडेय के साथ
७. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर द्वारा आयोजित लेखक से भेंट, १४ अक्तूबर १९९६,
विजयदान देथा
८. बोरूंदा डायरी, मालचंद तिवारी, राजकमल प्रकाशन
९. https://samvadnews.in/interview-of-vijaydan-detha-legendary-story-teller-of-rajasthani-literature
रूसी भाषा पढ़ाने और रूसी से हिंदी में अनुवाद का अनुभव;
वर्तमान में हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर कार्यरत पाँच सदस्यों की एक टीम का हिस्सा।
अद्भुत लेखन...हार्दिक बधाई
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद।
Deleteडॉ सरोज शर्मा को ह्रदयतल से साधूवाद जिन्होंने विजयदान देथा जैसे महान साहित्यकार के कृतित्व और व्यक्तित्व को इतने मंझें हुये लेख में पिरो कर सांझा किया ।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteडा० सरोज शर्मा का बहुत अच्छा सन्तुलित लेख है विजयदान देथा जी पर. देथा जी लोक जीवन से जुड़े अप्रतिम लेखक हैं,उन्होंने अपनी रचनाओं की कथावस्तु को सीधे लोक से लिया है लेकिन खास बात ये है कि देथा जी की रचनाओं में सम्पूर्ण लोक जीवंतता के साथ उपस्थित रहता है... लोक की आत्मा विजय दान देथा जी की रचनाओं में ज्यों की त्यों है... इस लेख में भी यह उभर कर आया है... देथा जी की कहानियों में शब्द पात अपनी चरम सीमा पर रहता है... हार्दिक बधाई डा० सरोज शर्मा को और इस परियोजना के सभी सूत्रधारों को भी.
ReplyDelete-डा० जगदीश व्योम
व्योम जी, आपके शब्दों से मेरा उत्साह बढ़ रहा है। बहुत-बहुत शुक्रिया।
Deleteइस लेख ने मेरा दिल जीत लिया! लगा कि इस श्रृंखला को आप लोगों तक लाने की महीनों की मेहनत सफल हो गई है! बहुत बढ़िया लिखा है आपने सरोज जी! आपका शोध गहरा रहा तो आपने एक कहानी की तरह आलेख लिखा। खाली पीपे के भारी होने का बिम्ब हृदय भेद गया! मेरे लिए बहुत ख़ुशी की बात कि हमारा जन्मदिन एक ही दिन पड़ता है! उनको और पढ़ के सीखूँगी 🙏🏻 बहुत शुक्रिया सरोज जी आपका इस परियोजना से इतने मनोयोग से जुड़ना उसे समृद्ध करता है!
ReplyDeleteशार्दुला, बहुत-बहुत शुक्रिया। इस परियोजना से जुड़ने से यह आलेख लिखना सम्भव हो पाया। परियोजना से जुड़े सभी लोगों का आभार।
Deleteइस अद्भुत लेख को लिखने और हम में से बहुतों का परिचय विजयदान देथा जी से कराने के लिए सरोज बहुत बहुत शुक्रिया और तहे दिल से बधाई। देथा जी से परिचय के बाद जितना उनको पढ़ा, उन की भाषा, लेखन शैली और कथावस्तु से प्यार हो गया है।
ReplyDeleteप्रगति, मुझे भी बहुत मज़ा आया यह आलेख लिखते समय। हार्दिक धन्यवाद।
Deleteपहेली फ़िल्म मुझे बहुत पसंद आयी थी। इस उत्कृष्ट लेखनी के महान धारक से आज परिचय हुआ। शानदार लेख। आभार
ReplyDeleteआप प्रकाश झा की फ़िल्म परिणति भी देखिए। आपका धन्यवाद।
Deleteसच में अद्भुत लेख है | मुझे विशेष रूप से सरोज जी द्वारा उद्धृत उनका प्रकृति वर्णन वाला अंश बिल्कुल 'out of the world' लगा | कितने सुंदर और सटीक बिम्ब चुने हैं देथा जी ने और वो भी गद्य में | खाली पीपे के भारी होने की गहराई ‘बिज्जी’ ही भांप सकते थे |
ReplyDeleteसरोज जी को बहुत बहुत बधाई | 👍
जी बिल्कुल सही लिखा आपने। बिज्जी कमाल के लेखक थे। मुझे लगता है इस आलेख को लिखते हुए मैंने एक छोटी सी अलग ज़िंदगी जी है। बहुत मज़ा आया।
Deleteलोक एवं आधुनिक साहित्य के इस महान साहित्यकार पर लिखा यह लेख बहुत ही शानदार लिखा है। सरोज जी को इस लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जी।
Deleteएकदम सटीक और प्रभाव शाली साहित्य का वर्णन अतुलनीय है
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जी।
DeleteBahut Achcha! Ek Method Lekhak !🌹
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