"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" की भावना से भाव विह्वल द्विवेदी जी का जन्म परिचय उन्हीं की इन पंक्तियों से प्राप्त होना साहित्य अनुरागियों के लिए परम सौभाग्य है,
"रायबरेली के अंतर्गत सुरसरि - तट दौलतपुर ग्राम,
श्री हनुमंत-तनय जिसमें थे राम सहाय द्विवेदी नाम।
तिनके एक मात्र सुत मैंने यह 'कुमार संभव का सार',
अबके कवियों को प्रणाम कर किया यथामति किसी प्रकार।"
पतित पावनी माँ गंगा की गोदी में बसा उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद का एक छोटा सा गाँव है- दौलतपुर। रायबरेली की सुदूर परम सुरम्य वादियों में बसा यह गाँव कोई साधारण गाँव नहीं है। यह वह स्थान है, जहाँ हिंदी का विशाल वट वृक्ष अंकुरित हुआ था, जिसकी छाँह में हिंदी साहित्य पुष्पित और पल्लवित हुआ। हरे-भरे खेतों, घने बगीचों से आच्छादित, छोटी-छोटी, कच्ची-पक्की पगडंडियों से जुड़ा दौलतपुर 'हिंदी साहित्य का तीर्थस्थान' है, जहाँ की रज माथे से लगाने को प्रत्येक साहित्य प्रेमी अपना सौभाग्य समझता है। आखिर हो क्यों न? यही वो पुण्य स्थान है जहाँ १५ मई १८६४ को युगप्रवर्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म हुआ। द्विवेदी जी के पिता पं० राम सहाय कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। कहा जाता है कि उन पर महावीर (श्री हनुमान जी) का इष्ट था, इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम महावीर रखा।
कुशाग्र बुद्धि के द्विवेदी जी ने हिंदी के साथ-साथ गुजराती, संस्कृत और मराठी का भी अध्ययन किया। रायबरेली, फतेहपुर, उन्नाव आदि स्थानों पर शिक्षा ग्रहण करने हेतु उनका प्रवास हुआ। नौकरी के संदर्भ में अजमेर, मुंबई आदि देश के भिन्न-भिन्न कोनों में भ्रमण का अवसर मिला। रेलवे की नौकरी करते हुए भी उनका मन हिंदी में ही रमा रहा। रेलवे में उच्च अधिकारियों से अनबन होने के कारण उन्होंने रेलवे की नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। २०० रुपए की मासिक नौकरी छोड़कर इंडियन प्रेस, प्रयाग से निकलने वाली सरस्वती पत्रिका का २० रुपए मासिक पर संपादन का कार्य करना उनके हिंदी के प्रति अगाध प्रेम का परिचायक है।
सरस्वती के संपादक बनने की घटना भी बड़ी दिलचस्प है। इंडियन प्रेस की एक पुस्तक स्कूली पाठ्यक्रम में सम्मिलित हुई थी, जिस पर द्विवेदी जी की दृष्टि पड़ी। उन्होंने सशक्त आलोचना करते हुए उसकी त्रुटियों पर विशद टिप्पणी की और यह शिकायत शिक्षा विभाग को तथा उसकी प्रति श्री चिंतामणि घोष, जो इंडियन प्रेस के मालिक थे, को भी भेज दी। अपनी पुस्तक के बारे में इस घटना से वे क्रोधित नहीं हुए, अपितु द्विवेदी जी में उन्हें एक उच्च कोटि का विद्वान दिखा। जब बाबू श्याम सुंदर दास ने सरस्वती से त्यागपत्र दिया तो उन्होंने द्विवेदी जी को सरस्वती का सवैतनिक संपादक बनने का आग्रह किया, जिसे द्विवेदी जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। यह वह समय था, जब स्वतंत्रता के लिए संपूर्ण जनमानस उबल रहा था।
सरस्वती पत्रिका का संपादन इतना सरल नहीं था। स्वतंत्रता आंदोलन में भी उनका अप्रितम योगदान रहा। सरस्वती में प्रकाशित उनकी रचना 'आर्यभूमि' इस छटपटाहट को चित्रांकित करती है -
"विचार ऐसे जब चित्त आते
विषाद पैदा करते, सताते
न क्या कभी दैव दया करेंगे?
न क्या हमारे दिन भी फिरेंगे?
देश प्रेम से सराबोर उनकी ये पंक्तियाँ कितनी उदात्त भावना लिए हुए हैं -
"पिछड़ा वतन हुआ यह बेजा
फटता है सुब किये कलेजा
ठाठ अमीरी के सब तुझपर
मिले अगर,तू करे निछावर"
द्विवेदी जी ने आलोचना, अनुवाद, निबंध, कविता सहित हिंदी की सभी विधाओं में साहित्य को समृद्ध किया।आलोचना, अनुवाद आदि के अलावा उन्होंने अनेक गद्यात्मक और पद्यात्मक मौलिक ग्रंथों की रचना की। हिंदी शिक्षावली, वैज्ञानिक कोश (१९०६), नाट्यशास्त्र(१९१२) और हिंदी भाषा की उत्पत्ति जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना और अनेकानेक अनुवाद किए। देवीस्तुति शतक, सुमन, काव्य मंजूषा, कविता कलाप और द्विवेदी काव्यमाला उनकी प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ हैं। उनके संपादन में सरस्वती पत्रिका ने विशुद्ध साहित्य का नवनिर्माण किया और साथ ही साथ राष्ट्रीयता की भावना का संचार किया। १९०३ में संपादक का कार्यभार ग्रहण करने के पश्चात उन्होंने हिंदी में नवचेतना जाग्रत की। उनकी जीवटता के कारण ही हिंदी में कहानी, उपन्यास, जीवनी, यात्रा-वृतांत, समालोचना, व्याकरण, पुरातत्व, धर्म और दर्शन आदि विविध विषयों का समावेश हुआ। हिंदी समालोचना को स्थापित करने का श्रेय भी आचार्य जी को ही जाता है। गद्य और पद्य दोनों को खड़ी बोली की मानक भाषा में परिमार्जित करना उनकी महती उपलब्धि है।
प्रारंभ में द्विवेदी जी अपनी रचनाएँ 'भुजंगभूषण भट्टाचार्य' के छद्म नाम से छापा करते थे। सरल, सहज काव्य उनकी विशेषता है। कोकिल कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -
"कोकिल अति सुंदर चिड़िया है
सच कहते हैं ,अति बढ़िया है
जिस रंगत के कुँवर कन्हाई
उसने भी वह रंगत पाई"
द्विवेदी जी की भाषा एकदम सरल, सहज और व्याकरण सम्मत खड़ी बोली है। द्विवेदी जी ने गद्य और पद्य दोनों के लिए खड़ी बोली का प्रयोग किया। उन्होंने मनमाने ढंग से लिखने वाले कवियों और लेखकों की कटु आलोचना की और शुद्ध व परिमार्जित रूप से लिखने के लिए प्रेरणा दी। अपने लेखों में उन्होंने परिचयात्मक, आलोचनात्मक, गवेषणात्मक शैली के साथ-साथ भावात्मक और व्यंग्यात्मक शैली का भी प्रयोग किया है। उनकी आलोचनात्मक शैली की एक झलक दृष्टव्य है -
"संस्कृत जानना तो दूर की बात है, हम लोग अपनी मातृभाषा हिंदी भी बहुधा नहीं जानते और जो लोग जानते भी हैं, उन्हें हिंदी लिखने में शर्म आती है। ऐसे मातृभाषा द्रोहियों का ईश्वर कल्याण करे।"
उनका प्रभाव उस समय के सभी साहित्यकारों पर रहा। इसी कारण आधुनिक हिंदी का दूसरा युग 'द्विवेदी युग' के नाम से जाना जाता है। यदि आचार्य द्विवेदी ने रेलवे की नौकरी न छोड़ी होती तो क्या आज हमें हिंदी साहित्य का वर्तमान विपुल कोश मिल पाता?
हिंदी के अनेकानेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार उनकी ही छाया में पले-बढ़े। उनके सशक्त संपादन के बल पर ही हिंदी साहित्य जगत को पं० चंद्रधर शर्मा गुलेरी की 'उसने कहा था' और प्रेमचंद की 'पंच परमेश्वर' जैसी कालजयी कहानियाँ प्राप्त हुईं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को भी उनके कोप का भाजन बनना पड़ा था। महावीर प्रसाद द्विवेदी की स्तुति में वे लिखते हैं -
"करते तुलसीदास भी कैसे मानस नाद
महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद।"
-अर्थात जिस प्रकार बाबा तुलसीदास ने हनुमान जी की कृपा से श्री रामचरित मानस की रचना की, उसी प्रकार मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी जी की कृपा से साकेत की रचना कर पाए।
गुप्त जी ने इस संदर्भ में यह भी लिखा -
"द्विवेदी जी ने मेरी उल्टी सीधी रचनाओं का पूर्व शोधन किया।"
यही नहीं, महावीर प्रसाद द्विवेदी के समालोकन में ही साकेत, भारत-भारती, प्रियप्रवास जैसे महाकाव्यों से हिंदी साहित्य को समृद्धि मिल पाई। छायावाद वस्तुतः द्विवेदी युग के कलात्मक पक्ष की ही परिणति है। भारतेंदु युग में भाषा जिस अराजकता से गुजर रही थी, उस समय उसका शोधन और परिमार्जन अति आवश्यक था, जिसे आचार्य जी ने बड़ी तन्मयता से पूरा किया। कुछ लोग यद्यपि आचार्य जी को श्रेष्ठ लेखक और कवि मानने में संकोच करते हैं, जिनमें उनके प्रिय शिष्य आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी हैं। मगर वही रामचंद्र शुक्ल 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में स्वयं स्वीकारते हैं कि "अगर द्विवेदी जी समय रहते न उठ खड़े होते तो जैसी व्याकरण विरुद्ध और ऊटपटांग भाषा चारों ओर दिखाई पड़ती थी, उसकी परंपरा जल्दी न रुकती।"
आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, विश्वंभर नाथ शर्मा, पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, श्रीधर पाठक और हरिभाऊ उपाध्याय सरीखे न जाने कितने जाज्ज्वल्यमान सितारे द्विवेदी युग की ही देन हैं। अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी को भी उनका सान्निध्य मिला।
काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा खड़ी बोली के उन्नायक, गद्य के विधायक व युग प्रवर्तक महावीर प्रसाद द्विवेदी को 'आचार्य' की उपाधि से सुशोभित किया गया। उनकी जन्मशती समारोह के अवसर पर उनके सम्मान में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के मुख्य द्वार पर सुमित्रानंदन पंत ने उनकी मूर्ति का अनावरण किया।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी आधुनिक हिंदी के पितामह थे, जिन्होंने हिंदी को न केवल उंगली पकड़कर चलना सिखाया, अपितु अनुशासन की छड़ी से शुद्ध और व्याकरण सम्मत बनाया। उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों के माध्यम से न केवल साहित्य में नवजागरण किया, अपितु अँग्रेज़ों के अत्याचारों से आहत और विभिन्न सामाजिक कुरीतियों से त्रस्त समाज में भी अपने प्रगतिशील विचारों के माध्यम से क्रांति लाने का प्रयास किया। एक बार उनके गाँव की एक दलित महिला को साँप ने काट लिया। बिना किसी झिझक के उन्होंने अपने जनेऊ से उसके पैर का अंगूठा बाँध दिया। अपने इस कृत्य के विरोध के प्रत्युत्तर में उनका मात्र इतना ही कहना था कि मानव जीवन से बड़ा कुछ नहीं है।
आज जहाँ हर ओर आधी आबादी की चिंता है, वहाँ उस दौर में उन्होंने क्रांतिकारी कदम उठाते हुए अपनी पत्नी की स्मृति में घर के सामने एक 'स्मृति मंदिर' का निर्माण करवाया, जिसमें लक्ष्मी और सरस्वती के साथ अपनी पत्नी शारदा की मूर्ति भी स्थापित करवाई। 'स्मृति मंदिर' स्त्रियों के प्रति उनके संवेदनशील तथा उच्च विचारों का प्रतीक है, जो आज के समाज की प्रेरकशक्ति है।
पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी ने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अतुलनीय अवदान को रेखांकित करते हुए कहा है -
"मुझसे अगर कोई पूछे कि द्विवेदी जी ने क्या किया, तो मैं समग्र आधुनिक हिंदी साहित्य दिखाकर यह कह सकता हूँ कि यह सब उन्हीं की सेवा का फल है।"
महावीर प्रसाद द्विवेदी : जीवन परिचय |
जन्म | १५ मई १८६४, दौलतपुर, रायबरेली, उत्तर प्रदेश |
निधन | २१ दिसंबर १९३८, दौलतपुर, रायबरेली |
पिता | श्री राम सहाय दुबे |
शिक्षा | मैट्रिक |
संपादक | सरस्वती पत्रिका, जनवरी १९०३ से दिसंबर १९२० |
साहित्यिक रचनाएँ |
काव्य (मौलिक) | देवीस्तुति शतक कान्यकुब्जावलीब्रतम समाचारपत्र संपादन स्तवः नागरी कान्यकुब्ज अबला विलाप काव्य मंजूषा सुमन द्विवेदी काव्यमाला कविता कलाप
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अनूदित काव्य | |
मौलिक गद्य | नैषधचरित्र चर्चा तरुणोपदेश हिंदी शिक्षावली वैज्ञानिक कोश नाट्य शास्त्र विक्रमांकदेव चरित चर्चा हिंदी भाषा की उत्पत्ति संपत्ति शास्त्र कौटिल्य कुठार कालिदास की निरंकुशता वनिता विलाप औद्योगिकी रसज्ञ रंजन कालिदास और उनकी कविता सुकवि संकीर्तन महिला मोद आध्यात्मिकी वैचित्र्य चित्रण साहित्यालाप विज्ञ विनोद कोविद कीर्तन विदेशी विद्वान प्राचीन चिन्ह चरित चर्या पुरावृत्त दृश्य दर्शन आलोचनान्जलि चरित्र चित्रण पुरातत्व प्रसंग साहित्य सीकर वाग्विलास संकलन विचार विमर्श
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अनूदित गद्य -विभिन्न ग्रंथों का अनुवाद | भामिनी विलास अमृत लहरी बेकन विचार रत्नावली शिक्षा स्वाधीनता जल चिकित्सा हिंदी महाभारत रघुवंश वेणी संहार कुमार संभव मेघदूत किरार्तर्जुनीय प्राचीन पंडित और कवि आख्याकिका सप्तक
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प्रसिद्ध लेख | क्या हिंदी नाम की कोई भाषा ही नहीं सरस्वती में १९१३ में प्रकाशित आर्य समाज का कोप, १९१४ में सरस्वती में प्रकाशित
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सम्मान |
•काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा आचार्य की उपाधि •हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा विद्या वाचस्पति की उपाधि |
अन्य |
- काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा १९३३ में आचार्य द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन, जो कि हिंदी का पहला अभिनंदन ग्रंथ है। जिसमें महात्मा गाँधी, ग्रियर्सन, प्रेमचंद सहित अनेक साहित्यकारों के लेख हैं।
- डॉ० गंगानाथ झा के सभापतित्त्व में द्विवेदी मेले का आयोजन।
- भारत सरकार द्वारा जन्म शताब्दी वर्ष पर डाक टिकट जारी।
- अभिनंदन ग्रंथ का पुनः प्रकाशन एनबीटी द्वारा।
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संदर्भ
द्विवेदी काव्यमाला
सरस्वती पत्रिका के पुराने अंक(साभार इंटरनेट)
www.wikipedia.org
आचार्य द्विवेदी जी निबंध-हरिभाऊ उपाध्याय
आचार्य द्विवेदी जी का अभिनंदन ग्रंथ नवीन संस्करण
www.kavitakosh.org
www.bharatdarshan.co.nz
महावीर प्रसाद द्विवेदी और नवजागरण
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली
लेखक परिचय
मनीष कुमार श्रीवास्तव
भिटारी रायबरेली उत्तर प्रदेश
संप्रति : सहायक अध्यापक
पुस्तक प्रकाशन : ‘प्रकाश : एक द्युति' (हाइकु क्षितिज), कई साझा काव्य संग्रह, एक साझा कहानी संग्रह, हाइकु कोश सहित सोशल मीडिया पर अनेक रचनाएँ।
ईमेल - manish24bhitari@gmail.com
"इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम महावीर प्रसाद रखा।"
ReplyDeleteमनीष जी, बहुत सहजता से आपने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला है। आलेख के शुरू में दिए गए उनके परिचय, दिलचस्प घटनाओं, उदृत पंक्तियों से लेकर अंत तक सब कुछ बहुत रोचक लगा। कई नई जानकारियाँ भी मिलीं। ऐसे दमदार आलेख के लिए बधाई और भावी लेखन के लिए शुभकामनाएँ। आगे भी ऐसे आलेख हमें पढ़ाते रहिएगा।
ReplyDeleteसारगर्भित संग्रहणीय लेख।अभिनंदन।
ReplyDeleteमनीष जी नमस्कार। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने में अतुलनीय योगदान दिया। उन्होंने हिंदी काव्य एवं गद्य के अनेकों मौलिक ग्रन्थ लिखे। साथ ही अनके ग्रन्थों का अनुवाद एवं सरस्वती जैसे प्रतिष्ठित पत्रिका का सम्पादन भी किया। आपने ऐसे महान साहित्यकार के जीवन एवं साहित्य का बहुत सुंदर परिचय अपने इस लेख में दिया है। आपको इस रोचक एवं शोधपरक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबहुत सहजता से धारा प्रवाह आलेख लेखन के लिए बधाई। द्विवेदी जी के जीवन को समग्रता से जानने को मिला उसके लिए आभार
ReplyDeleteमनीष जी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पर आपका यह आलेख उनकी ही बताई 'सरल और सहज' लिखने की सीख की लीक पर है; अत्यंत पठनीय। आचार्य जी की स्मृति को नमन, जिनकी जीवटता के कारण ही हिंदी में कहानी, उपन्यास, जीवनी, यात्रा-वृतांत, समालोचना, व्याकरण, पुरातत्व, धर्म और दर्शन आदि विविध विषयों का समावेश हुआ। हिंदी समालोचना को जिसने स्थापित किया। गद्य और पद्य दोनों को खड़ी बोली की मानक भाषा में परिमार्जित किया। कितने कर्मठ थे वे लोग, कैसे कर लेते थे इतना कुछ! आपको इस लेख की हार्दिक बधाई और आभार
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ReplyDeleteमनीष जी,आपके इस आलेख के माध्यम से, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के जीवन को समग्रता से जानने का अवसर मिला। सहज, सरल शैली में आपने द्विवेदी जी के साहित्यिक योगदान और उनकी कर्मठता को रेखांकित किया है। इस धारा प्रवाह, पठनीय लेखन के लिए आपको बधाई।
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